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________________ निर्वचन सादृश्यके आधार पर निष्पन्न हुआ है।व्याकरणके अनुसार लगि गतौ +कलच् प्रत्यय कर लांगल: शब्द बनाया जा सकता है। यह शब्द उक्त अर्थमें लौकिक संस्कृतमें भी प्रयुक्त होता है।१३२ यास्कके समयमें भी हल लांगलाकृति रहता होगा। (१६६) लांगूलम् :- यह पूंछ का वाचक है। निरुक्तके अनुसार १- लांगूलं लगते:१२५ अर्थात् यह शब्द लगि गतौ संगे च धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि पूंछ गतिशील होती है। या शरीर से लगी होती है। २- लंगते: अर्थात् यह शब्द लंग गतौ धातुसे निष्पन्न होता है। इसका अर्थ भी प्रथम निर्वचन के समान ही होगा। ३. लम्वतेर्वा१२५ अर्थात् यह शब्द लम्ब अवसंस्त्रने धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि पूंछ लटकी रहती है या लम्बी होती है। प्रथम एवं द्वितीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें उपयुक्त माना जायगा। अन्तिम निर्वचनका आधार दृश्यात्मक है। व्याकरणके अनुसार भी लगि गतौ धातु से ऊरच्+अण् प्रत्यय कर लांगूलम् शब्द बनाया जा सकता है।१३३ (१६७) बेकनाटा :- इसका अर्थ होता है- सूदखोर। निरुक्तके अनुसार १बेकनाटा: खलु कुसीदिनो भवन्ति द्विगुण कारिणो वा१२५ अर्थात् वेकनाटा सूद पर जीवन निर्वाह करने वाले को कहा जाता है क्योंकि वह अपने धन को दुगुना करने वाला होता है- द्वि +गुण-द्वेगुण- वेगन = वेकन + डाटन् = बेकनाटा। २- द्विगुणदायिनो वा१२५ अर्थात् वह दुगुने सूद पर रुपये लगाने वाला होता है। इसमें भी द्विगुण-वेगुन वेकन-वेकनाटा। ३- द्विगुणं कामयन्त इति वा१२५ अर्थात् वह अपने धन से दुगुने की कामना करता है। इसमें भी द्विगुण से वेकन वेकनाटा है। यास्क का यह निर्वचन अस्पष्ट है। यास्क ने वेकनाटा शब्दके अर्थको स्पष्ट करनेके लिए ही अनेक संभावनाएं व्यक्तकी है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा। व्याकरणके अनुसार वे+ एक +नाट् अच् प्रत्यय कर वेकनाटा शब्द बनाया जा सकता है। (१६८) मत्स्याः :- इसका अर्थ होता है. मछलियां। निरुक्तके अनुसार मधौ उदके स्यन्दन्ते१२५ अर्थात् यह जलमें विचरण करती है। इस शब्दमें मधु+स्यन्द् प्रस्त्रवणे धातुका योग है। मधु जलका वाचक है। जलमें विचरण करनेके कारण मत्स्य कहलाती है। २. माद्यन्ते अन्योन्यं भक्षणाय इतिवा१२५ ये मछलियां एक दूसरे के भक्षण के लिए प्रसन्न होती है।१३४ बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें मद्+भस् +धातुका योग है- मद्+भस् + य=मत्स्यः । प्रथम ३८०:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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