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________________ होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें श्रिञ् सेवायां धातुका योग है- श्रि-स्थि स्थूरः। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण संगत नहीं है। अर्थात्मक आधार उपयुक्त है! लौकिक संस्कृत में प्राप्त स्थूल शब्द र ल की एकताके आधार पर निष्पन्न है। (१४७) अणु :- इसका अर्थ सूक्ष्म होता है। निरुक्तके अनुसार अणुरनु स्थवीयांसम् अर्थात् स्थूलका विपरीत अनु शब्द ही अणु: है। वह वृहत् का विपरीत है। अनु के न का ण होकर अणुः बन गया है। उपसर्गो लुप्तनामकरणो यथा सम्प्रति८७ अर्थात् यह अनु उपसर्ग है जिसे संज्ञाके रूपमें प्रयोग किया जाता है अनु + क्विप् (क्विप् का सर्वापहारी लोप)-अनुासम्प्रति शब्द में सम् एवं प्रति उपसर्ग है लेकिन प्रति संज्ञाके रूपमें प्रयुक्त हुआ है। सम्प्रति में प्रति की विभक्ति लुप्त है।साम्प्रतम् शब्दमें प्रतिके नाम पद की स्पष्टता प्रति लक्षित हो जाती है सम्+प्रति-सम्प्रति+अण् =साम्प्रतम्। यास्कने अणुः शब्दका भी निर्वचन नहीं किया। मात्र उसके स्वरूप एवं अर्थकी ओर संकेत किया है। लौकिक संस्कृतमें अणुः शब्द सूक्ष्मका वाचक है। व्याकरणके अनुसार अणु शब्दे धातुसे उ:प्रत्यय कर अणुः शब्द बनाया जा सकता है।१२०यास्ककी अणुः शब्दकी व्याख्यासे पता चलता है कि प्रत्येक उपसर्ग संज्ञाके ही अवशिष्ट रूप है। (१४८) कुलंग :- यह एक राजाका नाम है। निरुक्तके अनुसार कुरूंगो राजा बभूवा कुरूगमनाद्वा८७ अर्थात् कुरूंग नाम कुरू गमनके कारण पड़ा क्योंकि इसने कुरू राजाओं पर चढ़ाई की थी। इसके अनुसार इस शब्दमें कुरू + गम् धातुका योग . है। २- कुलगमनाद्वा८७ अर्थात् यह शत्रुकुलों पर आक्रमण करनेके कारण कुरूंग कहलाया। इसके अनुसार इस शब्द में कुल + गम् धातुका योग है कुल +गम्- कुलुंगकुरंग (ल का र वर्ण परिवर्तन)। दोनों निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें संगत माना जायगा। कुरूंग शब्दका निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखता है। (१४९) कुरू :- इसका अर्थ होता है नष्ट करने वाला। निरुक्तके अनुसार कुरू: कृन्तते:८७ अर्थात् यह शब्द कृती छेदने धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है-कृत् कुर- ऋ का उ में विकास कुरू। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। ऋ का उ ध्वनिमें विकास अन्य शब्दों में भी देखा जा सकता है- कृत कुट१२१ कृन्त् से कुत्स१२२ आदि। कुरू: शब्दका निर्वचन भी ऐतिहासिक आधार रखता है। कालान्तरमें यह प्रदेश विशेषका वाचक हो गया है। ३७५:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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