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________________ सकता है। (२८) बृबदुक्थ :- इसका अर्थ होता है बृहत् स्तोत्र। निरुक्तके अनुसारबदुक्थो महदुक्थो वक्तव्यमस्या उक्थमिति बृबदुक्था वा१ अर्थात् महान् स्तोत्र वाला या अकथनीय स्तोत्र वाला। इसके अनुसार बृबदुक्थः शब्दमें दो पदखण्ड हैं- बृबत् + उक्थः। बृबत् बृहत् का वाचक है तथा उक्थ उत्तर पदस्थ है जिसका अर्थ होता है स्तोम। यास्कने बृबदुक्य:का अवगत रूप महदुक्थ कहा है। महदुक्थ से बृबदुक्थ मान लेना ध्वन्यात्मक दृष्टिसे सर्वथा असंगत होगा। महत् को वृहत् मानकर भी वृहत्+ उक्थ: बृबदुक्थः मानने में ध्वनिगत औदासिन्य रहता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इस निर्वचनको पूर्ण नहीं माना जायगा। इस निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। (२९) ऋदूदर :- इसका अर्थ होता है सोम। निरुक्तके अनुसार-ऋदूदरः सोमो मृदुदरः मृदूदरेष्विति वा१ अर्थात् मृदु उदर वाला या उदरमें जाने पर जो मृदु हो। जो अन्दरसे मृदु या कोमल हो उदरस्थ होने पर उस मृदु को मृदुदर कहा जायगा मृदु + उदर-मृदूदर- ऋदूदर। इस शब्दमें प्रथम पद ऋदु है जो मृदु से वर्ण लोप होकर बना है उत्तर पद उदर है। अत: ऋदु+उदर-ऋदूदर: शब्द बना। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इस से उपयुक्त माना जायगा। उक्त अर्थमें इसका प्रयोग लौकिक संस्कृतमें प्रायः नहीं देखा जाता। (३०) ऋदूपे :- यास्क इसकी व्याख्या आगे करेंगे कह कर विश्राम ले लेते हैं लेकिन आगे में इसकी उपलब्धि नहीं होती। (३१) पुलुकाम :- इसका अर्थ होता है बहुत कामनाओं वाला। निरुक्तके अनुसार पुलुकामः पुरूकाम:१ अर्थात् बहुत हैं कामनाएं जिसकी। इस शब्दमें दो पद खण्ड हैं. पुलु+ कामः। पुलु पुरू का वाचक है जिसका अर्थ होता है अधिक। इसमें र वर्ण का ल में परिवर्तन हो गया है फलतः पुरू पुलु उत्तर पद कामः कामना का वाचक है. पुल + काम:= पुरूकामः। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा। (३२) असिन्वती :- इसका अर्थ होता है- न चबाते हुए। निरुक्तके अनुसारअसिन्वती असंखादन्त्यौ१ अर्थात् ठीक ढंग से नहीं खाते हुए। यास्कने इस निर्वचनका मात्र अर्थ ही स्पष्ट किया है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त नहीं माना जा सकता। असिन्वती शब्दमें न-अ+षि बन्धने धातु + शतृ+ डीप् प्रत्ययका योग है। यह ३४३: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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