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________________ वृवदुक्थ, असिन्वति, ततः, अस्मे, ओमासः, अमति याद्दश्मिन् चनः शासदान:, करस्नौ, प्रतद्वसू, चोष्कूयमाण:, चोष्कूयते, सुमत्, स्थूर:, बकुर:, वृकः, वेकनाटा, अभिधेतन, वत, चाकन, असक्राम् अनवब्रव:, क्रिविर्दती, दन:, शरारू: और कि: हैं । रल की एकता के सिद्धान्त पर आधारित निर्वचन -हैं- लोष्ट:, रूज:, कूलम् - वलम्, पुरूकामः। अधम् में ह का ध में परिवर्तन है । अर्थसादृश्य पर अलातृणः, स्कन्धः, ऊधः, रात्रिः और शाखा हैं। अलातृण में स्वर संस्कार अस्पष्ट है। मृदुदर से ऋटूदर शब्द में आदि व्यंजन लोप है। दृश्यात्मक आधार पर लम्ब एवं लांगूल शब्द आधारित हैं। अमूर से अमूढ़: शब्द में क्षेत्रीय प्रभाव स्पष्ट है। क्रिमि: तथा काण: शब्द आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित हैं। लांगल से लांगूल में रूपसादृश्य है। · जज्झती : शब्द में शब्दानुकरण स्पष्ट है। नासत्यौ, कुरूंग:, कुरू: शिरिम्बिठः, पराशर आदि शब्दोंके निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखते हैं। औपमन्यव द्वारा प्रदर्शित . विकट एवं काण: के निर्वचन यास्कके निर्वचनोंकी अपेक्षा कम वैज्ञानिक हैं। निरुक्त के षष्ठ अध्याय में विवेचित निर्वचनों का परिशीलन द्रष्टव्य है 1 (१) आशुशुक्षणि:- इसका अर्थ होता है-अग्नि। निरुक्तके अनुसार १- आशुइति च शु इतिच क्षिप्रनामनी भवतः । क्षणिस्तरः क्षणोतेः १ अर्थात् आशु एवं शु दोनों क्षिप्र का वाचक है अन्तिम पद क्षणिः क्षण् हिंसायां धातुसे निष्पन्न है। आशु + शु +क्षण् आशुशुक्षणि: इसके अनुसार इसका अर्थ होगा शीघ्र नष्ट करने वाली । अग्नि किसी वस्तु को तत्काल जला डालती है। २-आशु शुचा क्षणोतीति वा १ अर्थात् वह अपनी कान्तिसे शीघ्र नष्ट कर देने वाली होती है। इसके अनुसार इस शब्दमें आशु +शुच्+ क्षण् धातुका योग है-आशु + शुच् शुक् + षणि: = आशुशुक्षणिः | ३ - सनोतीति वा १ अर्थात् यह अपनी दीप्तिसे धन प्रदान करने वाली है। इसके अनुसार इस शब्दमें आशु + शुचा+षण् सम्भक्तौ धातुका योग है- आशु +शुक् + षण् = आशुशुक्षणि: । ४- आशुशोचयिषु १ अर्थात् जो प्रदीप्त होनेकी इच्छा वाली है। इसके अनुसार आ + शुब् दीप्तौ +सन् + अनि प्रत्ययके योगसे आशु शुक्षणिः शब्दनिष्पन्न होता है२ आ+शुच्+शुच्+सन्+अनिः = आशुशुक्षणिः। यास्कके प्रथम एवं तृतीय निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इन्हें उपयुक्त माना जायगा। शेष निर्वचनों के अर्थात्मक महत्त्व हैं। उपर्युक्त निर्वचचनोंसे अग्निके कार्य एवं उसकी उपयोगिता स्पष्ट होती है। धार्मिक दृष्टिकोण से भी अग्नि का महत्त्व है क्योंकि इसकी दीप्तिसे धनकी ३३५: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क =
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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