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________________ यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा-(सा0 भा०), 32. शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषि, श्रोत्रमुक्तं निरुक्तंच कल्पः करौ । या तु शिक्षाऽस्य वेदस्य सा नासिका, पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्वृधैः ।। सिद्धान्त शिरोमणि - (गणिताध्याय), 33. अथशब्दानुशासनम - केषां शब्दानां वैदिकानां लौकिकानांच । महाभाष्य 111. 34. अमेरिका आदि, 35. भा0 वि. पृ07 - 9, 36. समाम्नायः समाम्नातः स व्याख्यातव्यः । तमिमं समाम्नायं निघण्टव इत्याचक्षते । - नि0 1।1। द्वितीय अध्याय निर्वचनों की ऐतिहासिक परम्परा (क) वैदिक साहित्यमें निर्वचनों का स्वरूप _ निर्वचन जिज्ञासा शान्तिकी महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। किसी शब्दमें जो अर्थ सम्पृक्त रहते हैं, उसका क्या आधार हो सकता है, इसका समाधान निर्वचन ही करता है। वेदांग होने के कारण निरुक्त भी वैदिक साहित्यमें परिगणित है। वैदिक साहित्य पर दृष्टिपात करनेसे पता चलता है कि निर्वचनका सूत्रपात निरुक्तसे बहुत पूर्व हो चुका था । वैदिक संहिताओंको इनका उत्स माना जा सकता है। आचार्य यास्कने तो वैदिक ऋषियोंको निरुक्तकारके रूपमें स्वीकार किया है। संहिताओंमें अर्थाभिव्यक्तिके लिए पदोंके धातु एवं धात्वंशोंका संकेत बड़ी सूक्ष्मतासे किया गया है। परिणामतः शब्दार्थोपलब्धिमें धात्वर्थका सम्बन्ध | स्थापित हो जाता है। इस प्रकारके शब्दोंके समावेशसे अर्थज्ञानमें तो सुगमता होती ही है, वाक्यों का चारूत्व भी बढ़ जाता है, वाक्य आलंकारिक हो जाते हैं। सभी नाम आख्यातज हैं, इस सिद्धान्तके अनुसार शब्दोंमें धात्वन्वेषण प्रकृति सिद्ध है । संहिताओंमें धातुओंके निर्देशसे निर्वचनका कार्य प्रधानतया सम्पन्न हुआ है। ऋक् संहितामें निर्वचनों का स्वरूप ज्ञान के अगाध स्रोत, सर्वसमृद्ध एवं सर्वप्राचीन ऋग्वेदसंहितामें निर्वचनोंका प्रथम दर्शन होता है। इस संहितामें दो प्रकारके निर्वचन प्राप्त होते हैं :- 1. प्रत्यक्षवृत्ति के निर्वचन एवं 2. परोक्ष वृत्तिके निर्वचन । प्रत्यक्ष वृत्तिके १२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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