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________________ शब्द बनाया जा सकता है। निरुक्त में त्व निपात भी माना गया है तथा नाम भी । इसके विकार का प्रदर्शन भी निरुक्तमें हुआ है । १५८क (११२) नेम :- यह अर्द्ध का वाचक है। निरुक्त के अनुसार -नेमोऽपनीत :११८ अर्थात् यह पूरे में से विभाजित करके लाया गया होता है। इसके अनुसार नेम: शब्द में नी धातु का योग है। यह ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे संगत है। व्याकरणके अनुसार नी +मन् प्रत्यय कर नेम: शब्द बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा। ( ११३) अर्ध: :- इसका अर्थ आधा होता है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं। (१) हरतेर्विपरीतस्य ११८ अर्थात् हृ धातु को विपरीत कर अर्ध शब्द बनाया जा सकता है-हृ-ह् + ऋ = ह+ऋ-अर् = ॠ अर् + हु-ध = अर्ध: । ह वर्ण का घोष महाप्राण वर्ण ध में भी परिवर्तन हो गया है। (वीरुध आदि) शब्दों में भी हका ही ध हुआ है- वीरुध् - वि+रुह् ।) (२) धारयतेर्वास्यात् । उद्धृतं भवति ११८ अर्थात् यह - धारि धातु से बना है क्योंकि यह सम्पूर्ण में से ही उद्धृत होता है। (३) ऋध्नोतेर्वा स्यात्। ऋद्धतमो विभाग : ११८ अर्थात् यह शब्द ऋध् वृद्धौ धातु से बनता है क्योंकि यह ऋद्धतम भाग होता है, बड़ा भाग होता है, प्रभूत विभाग होता है। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे प्रथम एवं तृतीय निर्वचन उपयुक्त हैं। तृतीय निर्वचनमें ऋघ् वृद्धौ धातुका योग है जो पूर्ण ध्वन्यात्मकता रखता है। द्वितीय निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखता है। व्याकरणके अनुसार ऋघ् वृद्धौ धातु से घञ् १५९ प्रत्यय कर अर्ध: शब्द बनाया जा सकता है। ( ११४) नक्षत्राणि :- इसका अर्थ होता है-तारेगण । निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं-(१) नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मण: ११८ अर्थात् यह शब्द गत्यर्थक नक्ष् धातुसे बनता है क्योंकि वे गमन करते हैं । ६० (२) नेमानि क्षत्राणि इति च ब्राह्मणम्११८ अर्थात् ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार नक्षत्राणि शब्द न + क्षत्राणि से बना है। क्षत्राणि धनका वाचक है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा ये अपने प्रकाश रूप धनसे प्रकाशित नहीं होते या ये क्षत्र धन नहीं हैं। इस प्रकार के निर्वचन तैतिरीय ब्राह्मण में भी प्राप्त होते हैं । १६१ प्रथम निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। डा. वर्मा के अनुसार यह निर्वचन अस्पष्ट है । १६२ ब्राह्मण ग्रन्थका निर्वचन भी न + क्षत्र ध्वन्यात्मक आधार रखता है। व्याकरण के अनुसार न + क्षद्+ष्ट्रन् १६३ प्रत्यय कर नक्षत्र शब्द बनाया जा सकता है। . (११५) ऋक्षा :- इसका अर्थ होता है तारेगण । निरुक्तके अनुसार ऋक्षा २३४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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