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________________ (९०) कपिंजल :- इसका अर्थ होता है जानवर विशेष। निरुक्तके अनुसार(१) कपिंजल: कपिरिव जीर्ण: अर्थात् यह पुराने वन्दरकी तरह रंगवाला होता है। इस शब्दमें कपि + ज़-(जीर्ण:) का योग है। (२) कपिरिवजवते अर्थात् यह वन्दर की तरह गति वाला है इसके अनुसार इस शब्दमें कपि + जु गतौ धातुका योग है। (३) इषत्पिंगलो वा अर्थात् वह थोड़ा पिंगल वर्ण का होता है। इसके अनुसार क-(इषत्) पिंगल-(पिंगल:)= कपिंजल है (४) कमनीय शब्दं पिंजयतीतिवा८ अर्थात् यह मधुर शब्द करता है इसके अनुसार (क) कमनीय का वाचक है तथा पिंज् धातुका पिंजल , ही पिंगल हो गया है। प्रथम निर्वचन में ध्वन्यात्मक संगति है। प्रथम एवं द्वितीय निर्वचनका आधार क्रमश: रंगसादृश्य एवं गतिसादृश्य है। तृतीय आकृतिमूलक तथा चतुर्थ गुणात्मक है। अर्थात्मक दृष्टिकोणसे सभी निर्वचन उपयुक्त है। प्रथम निर्वचन में र ध्वनि का ल में परिवर्तन हुआ है। व्याकरणके अनुसार पिज् शब्दे धातुसे कलच् कर बनाया जा सकता है। (९१) श्वा :- यह कुत्ता का वाचक है। निरुक्तके अनुसार (१) श्वा शु यायी अर्थात् यह शीघ गमन करने वाला होता है। इसके अनुसार इसमें शु + अय् गतौ धातुका योग है। (२) शवतेर्वा स्याद्गति कर्मण: अर्थात् यह शब्द गत्यर्थक शव् धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह गति करता है। (३) श्वसिते१ि१८ अर्थात् यह शब्द वधार्थक श्वस् धातुसे निष्पन्न होता है। क्योंकि यह हिंसक होता है या काटने वाला होता है। श्वस-श्वन-श्वा। ये निर्वचन भ्रमात्मक हैं। सभी निर्वचनों का अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे शु + इण् गतौ से श्वा शब्द माना जा सकता है।१२५ प्रथम एवं द्वितीय निर्वचनका अर्थात्मक आधार गति है। तृतीय निर्वचन उसके गुण पर आधारित है। व्याकरणके अनुसार इसे शिव गतौ + कनिन्१२६ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। लौल्यादि दोषके कारण श्वा का अर्थ कालान्तर में निन्दोपरक हो गया है। यथा-अयं श्वा एव।१२६क (९२) सिंह :- इसका अर्थ होता है मृगराज। निरुक्त के अनुसार-(१) सहनात् अर्थात् वह दूसरे को दवाता है अतः सिंह शब्दमें सह अभिभवे धातुका योग है। सह असिह अः,सिंह अ:=सिंहा(२)हिंसेस्यिाद्विपरीतस्य११८अर्थात् हिंसका ही विपरीत होकर सिंह बना है। इसके अनुसार हिंस् हिंसायाम् धातुसे हिंस बन कर वर्ण विपर्यय१२७ के द्वारा सिंह बन गया है वहअन्य पशुओंकी हिंसा करता है।(३)सम्पूर्वस्य वा हन्ते: अर्थात् यह शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक हन् धातुके योगसे बना है। इससे २२८: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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