SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पता न चल सके अर्थात् अल्प समय । मुहुः शब्द अव्यय है तथापि यास्क इसका निर्वचन करते नही चुकते । इस निर्वचनमें धातु स्पष्ट नहीं है। मात्र अर्थ स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह पूर्ण संगत नहीं है । व्याकरणके अनुसार मुह् + उस् प्रत्यय कर इसे बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें पुनः के अर्थमें भी इसका प्रयोग पाया जाता है। (134) अभीक्ष्णम् :- अभीक्ष्णम्का अर्थ होता है क्षणमात्र । निरुक्तके अनुसार अभिक्षणं भवति अर्थात् यह शब्द अभि + क्षण् धातुके योगसे बनता है । ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे यह उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें यह पुनः पुनः के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इस आधार पर इस शब्द में अर्थादेश माना जायगा । व्याकरणके अनुसार अभि + क्ष्णु तेजने धातु + डम् प्रत्यय कर अभीक्ष्णम् शब्द बनाया जा सकता है T (135) क्षण :- इसका अर्थ होता है - घोड़ा समय । निरुक्तके अनुसार क्षणः क्षणोतेः 77 अर्थात् यह शब्द क्षप हिंसायाम् धातुसे निष्पन्न होता है। प्रक्ष्णुतः कालः अर्थात् अल्प समय । डा० वर्माके अनुसार यह निर्वचन भाषा विज्ञानके अल्प विकासका परिणाम है। 278 हिंसार्थक होनेके कारण क्षणु धातु से क्षण शब्द मानना भाषा वैज्ञानिक दृष्टि संगत है । व्याकरणके अनुसार इसे क्षणु हिंसायाम् धातुसे अच् प्रत्यय कर सण् + अचय - क्षणः शब्द बनाया जा सकता है । (136) काल :- इसका अर्थ होता है समय । रुक्त के अनुसार कालः कालयतेर्गतिकर्मण:77 अर्थात् यह शब्द गत्यर्थ कल्, धत्तुके योगसे बनता है क्योंकि यह व्यतीत होता रहता है या सर्व प्राणियोंको समाप्त कर देता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे यह निर्वचन उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार कल् धातुसे अच् प्रत्यय कर अथवा घञ् प्रत्यय कर कालः बनाया जा सकता है । श्री मद्भगवद्गीतामें भी कल्से ही काल शुद्धका संकेत प्राप्त होता है 282 सभी प्राणियों को नष्ट कर देता है इसके चलते काल यमराज तथा मृत्युका भी वाचक है । (137) कुशिक :- कुशिक वैदि राजाका नाम है। ये विश्वामित्रके पिता थे । निरुक्तके अनुसार (1) क्रोशतेः शब्दकर्मण 283 अर्थात् यह शब्द कुश् १८७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy