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________________ उपयुक्त नहीं माना जायगा । राजवाड़ेके अनुसार रश्धातुसे रश्मि शब्द मानना ज्यादा अच्छा है जिसका अर्थ बांधना होता है। यह वैदिक कालीन प्रारंभिक धातु है। व्याकरणके अनुसार अशुव्याप्तौधातुसे अश्नोतेरश्च से मिः प्रत्यय कर र + अश् + मिः – रश्मिः माना जा सकता है। (95) दिश:- यह दिशा (काष्ठा) का वाचक है। इसके कई निर्वचन प्राप्त होते है (1) दिशतेः अर्थात् यह दिश् अतिसर्जने धातुसे बना है। इसके अनुसार अर्थ होगा देवताओंके लिए वलि इन्हीं दिशाओंमें दी जाती है। अतः इसी अतिसर्जन क्रियाके कारण दिशः शब्द बना (2) आसदनात् अर्थात् ये दिशायें प्रत्येक वस्तुओंके समीप तक रहती है। इसके अनुसार इसमें सद् + क्विप् + इकार – धातुके वर्ण परिवर्तनके द्वारा दस-इ-दिशः । (3) अपि वाभ्यशनात् अर्थात् वह सभी पदार्थोको व्याप्त कर लेती है। इसके अनुसार इसमें अश् व्यापने धातु है। डा0 वर्माके अनुसार यह निर्वचन भाषा विज्ञानके अनुकूल है। प्रथम निर्वचनध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। इसकी अर्थात्मकता सांस्कृतिक आधार रखती है। शेष दोनों निर्वचनोंमें आंशिक ध्वन्यात्मकता है। अर्थात्मक दृष्टिसे अन्तिम दो भी उपयुक्त हैं। व्याकरणके अनुसार इसे दिश्अतिसर्जनेधातुसे क्विन् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। (96) काष्ठा :- काष्ठाका अर्थ दिशा होता है। इसके अतिरिक्त भी इसके कई अर्थहोते है। दिशाके अर्थमें 1- क्रान्त्वा स्थिता भवति अर्थात् यह दूसरेकोधेर कर अवस्थित है। इसके अनुसार इस शब्दमें क्रम् धातु एवं स्था धातुका योग है- क्रम् + स्था - काष्ठा। उपदिशाके अर्थमें इतरेतरं क्रान्त्वा स्थिता भवति अर्थात् आपसमें एक दूसरेको घेर कर अवस्थित है। इसके अनुसारभी क्रम् + स्थाका योग स्पष्ट है।आदित्यके अर्थ में - 'क्रान्त्वा स्थितो भवति' अर्थात् अपने स्थान को अतिक्रमणकर अवस्थित है। क्रम + स्था-काष्ठा । संग्राम भूमिके अर्थमें-आज्यन्तोऽपिकाष्ठोच्यते क्रान्त्वा स्थितो भवति अर्थात् युद्धभूमि अपने प्रदेशमें जाकर स्थित है। क्रम + स्था। आप अर्थात् जलके अर्थमें क्रान्त्वा स्थिता भवन्तीति स्थावराणाम् अर्थात् वे जलाशयमें जाकर स्थित हो जाते है। यह निर्वचन स्थावर जलके लिए है गतिमान जलके लिए नहीं । यास्कके उपयुक्त निर्वचनोंमें क्रम+ स्थाका योग १७६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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