SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृथ्वी वाचक है तथा द्वितीय दुःख वाचक । अर्थात्मक संगतिके लिए ही ये निर्वचन किये गये हैं। प्रथममें निः + रम् एवं द्वितीयमें निः + ऋच्छ धातु का योग है। लौकिक संस्कृतमें निऋतिः दुःख या नरकका वाचक है- (निष्क्राता ऋतेः सन्मार्गात् निऋतिः) अर्थात् सन्मार्गसे रिक्त निकल जाना निऋतिः है। 49 व्याकरणके अनुसार इसे निर् + ऋ गतौ + क्तिन् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। (71) माता :- माताका अर्थ यहां अन्तरिक्ष है - निर्मीयन्तेऽस्मिन् भूतानि147 अर्थात् इसमें प्राणी बनाये जाते हैं । इस आधार पर माता शब्दमें मा धातुका योग है । मा धातुसे मातामें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संगति उपयुक्त है। इसी निर्माणके आधार पर जननीको भी माता कहा जाता है। अन्तरिक्षमें निर्माणका आधार अल्प प्रसिद्ध है। व्याकरणके अनुसार माता शब्दको मान् पूजायाम् + तृच् प्रत्यय कर मातृ - माता बनाया जा सकता है। भाषा विज्ञानके आधार पर यह सर्वथा संगत है। मातृका ही रूपान्तरण डवजीमत अंग्रेजीमें प्राप्त होता है। (72) वव्रि:- इसका अर्थ रूप होता है।150 यास्क इसमें वृञ् आच्छादने धातुका योग मानते है- वृणोतीतिसत:147 यह रूप आश्रितोंको आच्छादित कर लेता हे । वव्रि शब्दका लौकिक प्रयोग प्रायः नहीं प्राप्त होता । वैदिक भाषामें इसका प्रयोग पाया जाता है। वृञ् धातुसे वव्रि शब्द मानने पर अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। इसका ध्वन्यात्मक आधार पूर्ण संगत नहीं है। (73) हिरण्यम् :- हिरण्यका अर्थ सोना होता है। यास्क हिरण्य शब्दके कई निर्वचन प्रस्तुत करते हैं – (1) ह्रियत आयम्यमानमिति वा अर्थात् आभूषणके रूपमें विस्तृत करनेके लिए इसे हरण करते है। इसके अनुसार इसमें हहरणे धातुका योग सिद्ध होता है। (3) हितरमणं भवतीतिवा' अर्थात् यह हितकारक एवं रमणीय होता है। इसके अनुसार हिरण्य शब्दमें हित+रम् धातुका योग माना गया है हित+ रम्-हिरण्यम् । (4) हृदय रमणं भवतीति वात अर्थात् इसे रखनेकी इच्छा प्रत्येक व्यक्ति को होती है । इसके अनुसार हिरण्य शब्दमें हर्य धातुका योग है डा0 वर्माके अनुसार यह निर्वचन आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है ।121 हृधातु से हिरण्य शब्द मानने में आख्यातज १६६: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy