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________________ (३८) त्विषि :- यह दीप्ति या कान्तिका वाचक है । १०७ त्विष् कान्तौ धातुसे यह शब्द निष्पन्न है। यास्कने इसे अस्पष्ट ही छोड़ दिया है। अर्थका निर्देश ध्वन्यात्मक संगतिसे युक्तं है। (३९) स्थाणु:- स्थाणुका अर्थ शिव एवं टूट वृक्ष दोनों होता है। प्रसंगत: निरुक्तमें स्थाणु का प्रयोग ठूंठ वृक्षके लिए हुआ है। यास्कका कहना है कि यह नित्य ठहरा रहता है इसलिए इसे स्थाणुकी संज्ञा दी गयी है :- 'स्थाणुस्तिष्ठते '१०७ इस शब्दमें स्था धातुका योग है। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिसे उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार इसे स्था + नुः प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। कालान्तर में स्थाणु शब्दके अन्य अर्थ मी. प्राप्त हैं। यह शिवका वाचक भी माना जाता है। लेकिन निरुक्तमें शिवके लिए स्थाणु शब्दका प्रयोग नहीं हुआ है। (४०) अर्थ :- अर्थके धन, प्रयोजन, वस्तु, निवृत्ति, अभिधेय आदि कई अर्थ होते हैं।१०९ निरुक्तमें इसके लिए दो निर्वचन प्राप्त होते हैं। :- (१) 'अर्ते : ११० इसमें ऋ गतौ धातुका योग है क्योंकि इसके पास याचक जाते हैं । ११२ ऋ का अर् (गुण होकर) +थ प्रत्यय से यह शब्द बनता है। यह गतिमान होता है एक व्यक्तिसे दूसरे व्यक्तिके पास जाता रहता है। (२) 'अरणस्थो वा '११०० इसमें अर् स्था धातुका योग है। मालिक की मृत्यु होने पर यह यहीं रह जाता है- ११२ अस्था का थ अर्थः । दोनों निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त हैं क्योंकि दोनों निर्वचनोंमें ध्वन्यात्मक - एवं अर्थात्मक मूल्य सुरक्षित हैं। निरुक्तका अर्थ शब्द धन वाचक है। इसकी समानताके आधार पर ही शब्दार्थको भी अर्थ कह सकते हैं। व्याकरणके अनुसार इसे ऋगतौ धातु से स्थन् १ १३ प्रत्यय करके बनाया जा सकता है. ऋ-अर् + स्थन्थ = अर्थः। अर्थ उपयांञ्चायामू+घञ् ११४ प्रत्यय = अर्थ: बनाया जा सकता है। (४१) बिल्मम्:- बिल्मका अर्थ वर्गीकरण या विभाग होता है। निरुक्तमें विल्मम्के लिए दो निर्वचन प्राप्त होते हैं:- (१) भिल्मम् '११३ यह भेदन अर्थको व्यक्त करता है। भेदनसे तात्पर्य वेदोंके भेदसे है। मिल्मम्- बिल्मम् भ का ब में वर्ण-परिवर्तन है। ध्वन्यात्मक आधार पर यह निर्वचन उपयुक्त नहीं है। (२) बिल्म मासनमितिवा' ११५ इसमें मास् दीप्तौ धातुका योग है। प्रकाशित होनेके कारण ही बिल्म हुआ। वेदांग विज्ञानसे वेदार्थ प्रकाशित होता है ।११६ यह निर्वचन भी ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अपूर्ण है। १३५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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