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________________ 372 भद्रबाहुसंहिता कुटिल: कड्वखिलंगः कुचित्रगोऽथ निश्चयो। नामानि लिखितानि' च येषां नोक्तं तु लक्षणम् ॥52॥ शिखी, शिखण्डी, विमल, विनाशी, धूमशासन, विशिखान, शतार्चि, शालकेतु अलक्तक, घृत, घृताचि, च्यवन, चित्रपुष्प, विदूषण, विलम्बी, विषम, अग्नि, वातकी हसन, शिखी, कुटिल, कड्वखिलंग, कुचित्रग इत्यादि केतुओं के नाम लिखे गये हैं, जिनके लक्षण का निरूपण नहीं किया गया है ।।50-521 येऽन्तरिक्षे जले भूमौ गोपुरेऽट्टालके गृहे। वस्त्राभरण-शत्रेषु ते उत्पाता न केतवः ॥53॥ जो केतु आकाश, जल, भूमि, गोपुर, अट्टारी, घर, वस्त्र, आभरण और शस्त्र में दिखलायी पड़ते हैं, वे उत्पात नहीं करते ।। 53।। दीक्षितान अर्हदेवांश्च आचार्याश्च तथा गुरून । पूजयेच्छान्तिपुष्ट्यर्थं पापकेतुसमुत्थिते ॥54॥ पाप केतुओं की शान्ति के लिए मुनि-आचार्य, गुरु, दीक्षित साधु और तीर्थंकरों की पूजा करनी चाहिए ।।54।। पौरा जानपदा राजा श्रेणीनां प्रवरा: नरा:। 'पूजयेत् सर्वदानेन पापकेतुः समुत्थिते ।।55॥ पुरवासी, नागरिक, राजा, ब्राह्मण, श्रेष्ठ व्यापारी आदि व्यक्तियों को दानपूजा का कार्य अवश्य करना चाहिए। अशुभ केतु दान-पूजा द्वारा प्रीति को प्राप्त होता है ।। 55॥ यथा हि बलवान राजा सामन्तै: सारपूजितः। नात्यर्थ बाध्यते तत्तु तथा केतुः सुपूजितः।।56॥ __जिस प्रकार बलवान् राजा सामन्तों के द्वारा सेवित होने पर शान्त रहता है किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पहुंचाता, उसी प्रकार दुष्ट केतु भी जिस पाप के उदय से कष्ट पहुंचाता है, उस पाप की शान्ति भगवान् की पूजा से हो जाती है, वह पाप कष्ट नहीं पहुंचाता है ।।561 सर्पदष्टोः यथा मन्त्रैरगदैश्च चिकित्स्यते। . केतुदष्टस्तथा लोकनि जापश्चिकित्स्यते ॥57॥ ____1. रुक्तश्च मु० । 2. पितृदेवांश्च विप्रान् भूतान् वनीपकान् मु० । 3. विप्राश्च वणिजो नराः । 4. दान-पूजा ध्र वं कुयु: केतोः प्रीतिकरोऽन्यतः मु०। 5. सर्पो दष्टो यदा मु० । 6. -जपः मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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