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________________ षोडशोऽध्यायः अतः परं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभविचेष्टितम् । यच्छ त्वाऽवहितः प्राज्ञो भवेन्नित्यमतन्द्रितः ॥1॥ अब शुक्रचार के पश्चात् शनि-चार के अन्तर्गत शनि की शुभाशुभ चेष्टाओं का वर्णन किया जाता है, जिसको सुनकर विद्वान् सुखी हो जाते हैं ।।।।। प्रवासमुदयं वक्र गति वर्ण फलं तथा। शनैश्चरस्य वक्ष्यामि शुभाशुभविचेष्टितम् ॥2॥ पूर्वाचार्यों के मतानुसार शनि के अस्त, उदय, वक्र, गति और वर्ण के शुभाशुभ फल का वर्णन करता हूं ॥2॥ प्रवासं दक्षिणे मार्गे मासिकं मध्यमे पुन:। दिवसाः पञ्चविंशतिस्त्रयोविंशतिरुत्तरे ॥3॥ दक्षिण मार्ग में शनि का अस्त एक महीने का उत्कृष्ट और मध्यम पच्चीस दिन का होता है और उत्तर में तेईस दिन का ।।3।। चारं गतश्च यो भूय: सन्तिष्ठते महाग्रहः । एकान्तरेण वक्रेण भौमवत् कुरुते फलम् ॥4॥ जब शनि पुनः चार-गमन करता हुआ स्थिर होता है और एकान्तर वक्र को प्राप्त करता है तो भौम-मंगल के समान फलादेश उत्पन्न होता है ॥4॥ संवत्सरमपस्थाय नक्षत्रं विप्रमञ्चति । सूर्यपुत्रस्ततश्चैव द्योतमान: शनैश्चर: ॥5॥ शनि प्रजाहित की कामना से संवत्सर की स्थापना के लिए नक्षत्र का त्याग करता है ॥5॥ द्वे नक्षत्रे यदा सौरिर्वरेण चरते यदा। राज्ञामन्योऽन्यभेदश्च शस्त्रकोपञ्च जायते ॥6॥ जब शनि एक वर्ष में दो नक्षत्र प्रमाण गमन करता है तो राजाओं में परस्पर मतभेद होता है और शस्त्रकोप होता है ।।6।। दुर्गे भवति संवासो मर्यादा च विनश्यति । वृष्टिश्च विषमा ज्ञेया व्याधिकोपश्च जायते ॥7॥ उपर्युक्त प्रकार के शनि की स्थिति में शत्र के भय और आतंक के कारण ___1. यथावदनुपूर्वशः मु० । 2 एकोन्तरेण मु० । 3. प्रजानां हितकाम्यया मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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