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________________ त्रयोदशोऽध्यायः 179 यदेवाऽसुरयुद्धे च निमितं दैवतैरपि। कृतप्रमाणं च तस्माद्धि द्विविधं दैवतं मतम् ॥23॥ देवासुर संग्राम में देवताओं ने निमित्तों को देखा था और उन्हें प्रमाणभूत स्वीकार किया था। अतएव निमित्त दो प्रकार के होते हैं-शुभ और अशुभ ।।23।। ज्ञानविज्ञान युक्तोऽपि लक्षणय विवजित:। 'न कार्यसाधको ज्ञेयो यथा चक्रो रथस्तथा ॥24॥ ज्ञान-विज्ञान से सहित होने पर भी यदि नैमित्त, पुरोहितादि उपर्युक्त लक्षणों से रहित हों तो वे कार्य-साधक नहीं हो सकते हैं। जिस प्रकार वक्ररथटेढ़ा रथ अच्छी तरह से गमन करने में असमर्थ है, उसी प्रकार उपर्युक्त लक्षणों से हीन व्यक्तियों से युक्त होने पर राजा अपने कार्य के सम्पादन में असमर्थ रहता है ॥24॥ यस्तु लक्षणसम्पन्नो ज्ञानेन च समायत: । स 'कार्यसाधनो ज्ञेयो यथा सर्वांगिको रथः ॥25॥ जो नृप उपर्युक्त लक्षणों से युक्त, ज्ञान-विज्ञान से सहित व्यक्तियों को नियुक्त करता है, उसके कार्य सफल हो जाते हैं। जिस प्रकार सर्वांगीण रथ द्वारा मार्ग तय करने में सुविधा होती है, उसी प्रकार उक्त लक्षणों से सहित व्यक्तियों के नियुक्त करने पर कार्य साधने में सफलता प्राप्त होती है ।।25।। अल्पेनापि तु ज्ञानेन कर्मज्ञो लक्षणान्वितः । तद् विन्द्यात् सर्वमतिमान् राजकर्मसु सिद्धये ॥26॥ कार्यकुशल, भले ही अल्पज्ञानी हो, किन्तु उपर्युक्त लक्षणों से युक्त बुद्धिमान् व्यक्ति को ही राजकार्यों की सिद्धि के लिए नियुक्त करना चाहिए ॥26।। अपि लक्षणवान मुख्य: कंचिदर्थ प्रसाधयेत । "न च लक्षणहीनस्तु 'विद्वानपि न साधयेत् ॥27॥ उपर्युक्त लक्षणवाला व्यक्ति अल्पज्ञानी होने पर भी कार्य की सिद्धि कर सकता है । किन्तु लक्षण रहित विद्वान् व्यक्ति भी कार्य को सिद्ध नहीं कर सकता है ॥27॥ 1. यस्मात् यद्वृत्तं दैवतैरपि मु० । 2. मुक्तोऽपि मु० । 3. तं साधुकार्यगो मु० । 4. साधु कार्यगो मु० । 5. सिद्ध्यति मु० । 6. ज्ञानेन बलहीनस्तु मु० । 7. वेदवानपि मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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