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________________ प्रकटीकरण में न्यूनाधिक होने से भिन्नता है, जातीय भिन्नता नहीं है । समयपाहुड में कहा गया है जो हि सुदेणाहि गच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा । । (गाथा - 9) जो श्रुतज्ञान से इस आत्मा को केवल शुद्ध जानता है, लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि श्रुतकेवली कहते हैं । यही बात प्रवचनसार के ज्ञानाधिकार में भी कही गई हैजो हि सुदेण विजाणदि अप्पाणं जाणगं सहावेण । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा ।। (गाथा, 33 ) जो श्रुतज्ञान से अपने को ज्ञायक स्वभाव युक्त समझता है, उसे लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषि, श्रुतकेवली कहते हैं । सर्व श्रुतज्ञानी को श्रुतकेवली भी कहा गया है जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । सुदणाणमाद सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा || जो समस्त श्रुतज्ञान को जानता है, उसे जिनेन्द्र भगवान श्रुतकेवली कहते हैं, क्योंकि सर्व श्रुतज्ञान आत्मा ही है, इसी कारण वे श्रुतकेवली हैं। उपर्युक्त सब तथ्यों से यह फलित होता है कि श्रुतज्ञान का विषय शाब्दिक ज्ञान व इन्द्रियज्ञान नहीं है, कारण कि यह प्राणिमात्र को किसी न किसी अंश में अवश्य होता है, फिर भले ही वह सुश्रुत के रूप में प्रकट हो अथवा कुश्रुत के रूप में । श्रुतज्ञान परोक्ष क्यों ? प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रुतज्ञान को परोक्ष ज्ञान क्यों कहा? उत्तर में कहना होगा कि श्रुतज्ञान स्वाभाविक मांग का सूचक है, परन्तु इस माँग का बोध या अनुभव नहीं है । स्वभाव का अनुभव ही प्रत्यक्ष ज्ञान है। स्वभाव का अनुभव नहीं होने से श्रुतज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कहकर परोक्ष ज्ञान कहा है। श्रुतज्ञानजन्य शान्ति, स्वाधीनता, अमरत्व की तीव्र माँग को संवेग कहा है। संवेग के प्रभाव से विभाव का अभाव हो जाने पर जब पूर्ण तत्त्व का बोध होता है तब केवलज्ञान होता है । फिर मतिज्ञान के प्रभाव का अंत हो जाता है और श्रुतज्ञान की उपयोगिता व आवश्यकता भी नहीं रहती है। अतः केवलज्ञान होने पर इन दोनों ज्ञानों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है, ये निष्प्रयोजन हो जाते हैं । 14 ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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