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________________ यह सातावेदनीय का बन्ध वस्तुतः बन्ध नहीं है। अतः बन्ध का सम्बन्ध मूलतः कषाय से है और कषाय का सम्बन्ध मोहनीय कर्म से है। इसलिए जैन कर्मसिद्धान्त की यह मूलभूत मान्यता है कि कषाय के अभाव में बन्ध का अभाव हो सकता है। वस्तुतः यदि बंधन से विमुक्ति की ओर यात्रा करनी है तो कहीं न कहीं कषायों से मुक्त होना होगा। इसलिए आचार्य हरिभद्र ने कहा था- 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेवा। यदि हम कषायों से मुक्त होना चाहते हैं तो हमें कषायों के स्वरूप को समझना होगा। जैन परम्परा में कषायों का स्वरूप निम्न रूप से वर्णित है जैनदर्शन में 'कषाय' शब्द की व्युत्पति दो रूपों में की जाती है। प्रथम कष+आय अर्थात जिससे बन्धन की प्राप्ति होती है, उसे कषाय कहते हैं। दूसरे जो आत्मा के स्वाभाविक गुणों को कृश करे उसे भी कषाय कहा गया है। कषाय आत्मा की वैभाविक परिणति है। कषाय आत्मा के स्वलक्षण होकर उसकी विभाव दशा के सूचक हैं, क्योंकि इनके कारण आत्मा का समत्व भंग होता है। चेतना में तनाव उत्पन्न होता है। ये आत्मा का स्वभाव इसलिए नहीं हैं, क्योकि ये पर के निमित्त से उत्पन्न होते हैं। जैसे हमारे शरीर में रोग बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है, वैसे ही कषाय भी पर के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं- ये आत्मा को विकृत बनाते हैं और उसे बन्धन में डालते हैं। परम्परागत दृष्टि से कषाय चार हैं - क्रोध, मान (अहंकार), माया (कपटवृत्ति) और लोभ। इनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं - 1. अनन्तानुबंधी अर्थात् जिन कषायों में क्रिया-प्रतिक्रिया की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है, वे अनन्तानुबन्धी हैं। 2. अप्रत्याख्यानीय अर्थात् जिन कषायों पर व्यक्ति नियन्त्रण रख पाने में समर्थ नहीं होता है, वे अप्रत्याख्यानीय हैं। 3. जिन कषायों में प्रतिक्रिया पर हम नियन्त्रण कर पाते हैं वे प्रत्याख्यानीय कहे जाते हैं। 4. जो कषाय बाह्य रूप में अभिव्यक्त नहीं होते हैं, किन्तु अव्यक्त रहकर भी छद्मरूप से हमारी चेतना को प्रभावित करते हैं, वे संज्वलन कहे जाते हैं। अनन्तानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन में बाधक हैं, अप्रत्याख्यानी कषायों के कारण व्यक्ति आंशिक रूप से भी XLVIII भूमिका
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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