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________________ भूमिका समग्र भारतीय चिन्तन में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'कर्मणा बध्यते जन्तुः विद्यया प्रमुच्यते' अर्थात् प्राणी कर्म से बंधन में आता है और विद्या अर्थात् ज्ञान से मुक्त होता है। जैन परम्परा में सूत्रकृतांग (1.1.1.1 ) में कहा गया है कि साधक को यह जानना चाहिए कि भगवान ने बंधन किसको कहा है और उसे क्या जानकर तोड़ा जा सकता है। क्योंकि बंधन के स्वरूप को जानकर ज्ञानपूर्वक या बोधपूर्वक ही उसे तोड़ा जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में बंधन का मूलभूत कारण अज्ञान या मोह माना गया । उत्तराध्ययन सूत्र ( 32.7) में राग-द्वेष को कर्म बीज कहा गया है और उनका कारण मोह कहा गया है। वैसे जैन आचार्यों ने बंधन के पाँच हेतुओं का उल्लेख किया है - 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद 4. कषाय और 5. योग । कुंदकुंद आदि कुछ जैन आचार्यों ने इनमें 'प्रमाद' को छोड़ कर मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ऐसे बन्धन के चार कारण भी बताए हैं, किन्तु यदि हम गम्भीरता से विचार करते हैं तो इनमें भी मिथ्यात्व, अविरति तथा प्रमाद की सत्ता तो कषाय के कारण ही मानी गयी है। जैन कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता है कि जब तक अनन्तानुबंधी कषाय अर्थात् तीव्रतम कषाय का उदय रहता है तभी तक मिथ्यात्व रहता है। मिथ्यात्व की सत्ता अनन्तानुबंधी कषायों पर ही निर्भर करती है। यद्यपि मिथ्यात्व शब्द मिथ्या अवधारणाओं से ग्रसित होने का सूचक है और इस अर्थ में वह मोह का वाचक भी है, किन्तु उसकी सत्ता का आधार तो अनन्तानुबंधी कषाय ही है, क्योंकि अनन्तानुबंधी कषायों के उदय के सद्भाव में ही मिथ्यात्व के उदय का सद्भाव है। मिथ्यात्व से ऊपर उठने के लिए अनन्तानुबंधी कषायों का क्षय या उपशम आवश्यक होता है । अतः मिथ्यात्व कषाय आश्रित है । इसी क्रम में अविरति को भी कषाय आश्रित माना गया है, क्योंकि जैन कर्मसिद्धान्त की यह मान्यता है कि जब तक अप्रत्याख्यानी कषाय अर्थात् अनियंत्रित क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रवृत्तियाँ उदय में रहती हैं, दूसरे शब्दों में जब तक व्यक्ति XLV भूमिका
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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