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________________ भी ऐसा नहीं बीतता है, जिसमें पूर्व में बंधे कर्मों की यह घट-बढ़ रुकती हो। संक्रमण-करण प्रक्रिया के इस सिद्धान्त से स्पष्ट है कि पूर्व उपार्जित कर्मों में सदैव परिवर्तन चलता रहता है। सामान्यतः कोई भी बंधा हुआ कर्म एक क्षण भी ज्यों का त्यों नहीं रहता है। संक्रमण की यह प्रक्रिया प्राकृतिक विधान से प्राणिमात्र में निरन्तर चलती रहती है। परन्तु यह किसी ईश्वर, देवी, देवता, व्यक्ति आदि की कृपा-अकृपा के आश्रय से नहीं चलती है, अपितु अपने ही परिणामों के कारण, कारण-कार्य के नियम के अनुसार चलती है। इसमें मनमानी को कहीं भी कोई स्थान नहीं है। संक्रमण प्रक्रिया का 'जयधवला टीका', 'कर्म-प्रकृति' आदि ग्रन्थों में हजारों पृष्ठों में सूत्रात्मक रूप में विवेचन है। यह सब का सब मानसिक ग्रंथियों से मुक्ति पाने के उपाय के रूप में होने से बड़ी मनोवैज्ञानिक एवं मानव जाति के लिए अत्यन्त उपयोगी व महत्त्वपूर्ण है। पहले कह आए हैं कि पूर्वबद्ध कर्म-प्रकृति का अपनी जातीय अन्य प्रकृति में रूपान्तरित हो जाना संक्रमण करण कहा जाता है। वर्तमान में वनस्पति विशेषज्ञ अपने प्रयत्न विशेष से खट्टे फल देने वाले पौधे को मीठे फल देने वाले पौधे के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। निम्न जाति के बीजों को उच्च जाति के बीजों में बदल देते हैं। इसी प्रक्रिया से गुलाब की सैकडों जातियाँ पैदा की गई हैं। वर्तमान वनस्पति विज्ञान में इस संक्रमण प्रक्रिया को संकर-प्रक्रिया कहा जाता है, जिसका अर्थ संक्रमण करना ही है। इसी संक्रमण करण की प्रक्रिया से संकर मक्का, संकर बाजरा, संकर गेहूँ के बीज पैदा किए गए हैं। इसी प्रकार पूर्व में बंधी हुई कर्म-प्रकृतियाँ वर्तमान में बंधने वाली कर्म प्रकृतियों में परिवर्तित हो जाती हैं, संक्रमित हो जाती हैं। अथवा जिस प्रकार चिकित्सा के द्वारा शरीर के विकार ग्रस्त अंग हृदय, नेत्र आदि को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ हृदय, नेत्र आदि स्थापित कर अंधे व्यक्ति को सूझता कर देते हैं, रुग्ण हृदय को स्वस्थ बना देते हैं तथा अपच या मंदाग्नि का रोग, सिरदर्द, ज्वर, निर्बलता, कब्ज या अतिसार में बदल जाता है। इससे दुहरा लाभ होता है- 1. रोग के कष्ट से बचना एवं 2. स्वस्थ अंग की शक्ति की प्राप्ति । इसी प्रकार पूर्व की बंधी हुई अशुभ कर्म प्रकृति को अपनी सजातीय शुभ कर्म प्रकृति में बदला जाता है और उनके दुःखद फल से बचा जा सकता है। XXXII प्राक्कथन
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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