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________________ दानान्तराय एवं अनन्तदान दान देने की भावना न जगना, अपितु विषय-सुखों के लिए दूसरों से दान पाने की कामना उत्पन्न होना दानान्तराय है। अर्थात् उदारता का अभाव और स्वार्थपरता का होना दानान्तराय है। उदारता की उदात्त भावना दानान्तराय का क्षयोपशम है। उदारता का परिपूर्ण हो जाना अर्थात् अपने शरीर, बुद्धि, ज्ञान, बल, योग्यता आदि अपना सर्वस्व जगत्-हित के लिए समर्पित कर देना, अपने सुख-भोग के लिए कुछ भी बचाकर न रखना अनन्त दान है, दानान्तराय का क्षय है। अनन्तदानी वात्सल्य, करुणा, दया, सेवा, अनुकंपा से प्रेरित होकर विश्व के हित में निरत रहता है। __ कुछ विद्वान् दान देने की भावना उत्पन्न होने पर भी दान न दे सकने को दानान्तराय कर्म का उदय मानते हैं, परन्तु यह मान्यता उचित नहीं लगती है, कारण कि एकेन्द्रिय निगोद आदि संसारस्थ सभी प्राणियों के सदैव निरन्तर दानान्तराय का उदय रहता है, अतः इस मान्यतानुसार सभी प्राणियों के सदैव दान देने की भावना उत्पन्न होना और दान न दे सकना मानना होगा जो संभव नहीं है। द्वितीय, दान देने की भावना का उत्पन्न होना शुभ व शुद्धभाव है, पुण्य का सूचक है, अन्तराय कर्म के उदय का नहीं। दान देने की भावना होने पर भी किसी को दान देने का अवसर न मिल सके तब भी उसके पुण्य कर्म का उपार्जन होता है, अन्तराय आदि पाप कर्मों का नहीं। क्योंकि विशुद्धभावों से शुभ कर्मों का उपार्जन होता है, पापकर्मों का नहीं। श्रावक के बारहवें अतिथि संविभाग व्रत में प्रतिदिन भोजन करते समय साधु को आहार दान देने की भावना करना आवश्यक बताया है, परन्तु साधु को दान देने का संयोग तो उसे कभी कदाचित् ही मिलता है। इस प्रकार दान देने की भावना होते हुए भी श्रावक प्रायः दान देने से वंचित रहता है, अतः उसकी इस दान देने की भावना को दानान्तराय का उदय मानना भूल है। दान देने की, उदारता की भावना लोभ-कषाय में कमी होने से होती है। यह आत्म-गुण है जो प्रसन्नता व प्रमोद प्रदान करने वाला है। दान देने की भावना होते हुए भी घर असूझता हो जाना, भिक्षा के योग्य वस्तु न होने से दान न दे पाना, मिठाई, नमकीन, बादाम-पिस्ता आदि गरिष्ठ वस्तुएँ भिक्षा में न दे सकना आदि बाह्य कारण दानान्तराय का उदय नहीं है। दान देने की भावना न जगना, दान के फल अन्तराय कर्म 205
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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