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________________ यह प्रत्यक्ष तप की महिमा दिखाई दे रही है, जाति की कोई महिमा नहीं दिखती। जिसकी इतनी बड़ी चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेशी मुनि चाण्डाल का पुत्र है। यहाँ यदि हरिकेशी मुनि के चांडाल पुत्र होने से, पिशाच के समान बीभत्स तथा कुरुप होने से नीच गोत्र का उदय माना जाय तथा तप और श्रुत का फल होने से इनके उच्च गोत्र का उदय माना जाय तो इस प्रकार हरिकेशी मुनि के नीच और उच्च इन दोनों गोत्रों का उदय युगपत् मानना होगा, जो कर्म सिद्धान्त के विरुद्ध है, कारण कि कर्मसिद्धान्तानुसार किसी भी जीव के उच्च गोत्र और नीच गोत्र का उदय एक साथ नहीं हो सकता तथा साधु के नीच गोत्र का उदय होता ही नहीं है। अतः जाति, कुल, बल, लाभ, ऐश्वर्य आदि के अर्थ लोकव्यवहार में प्रचलित बाह्य पदार्थ नहीं हो सकते। ये सब सदाचरण परक गुणात्मक अर्थ के द्योतक हैं। जैन धर्म व्यक्ति को जाति, बाह्य रूप, बल आदि के आधार पर उच्च-नीच नहीं मानता है। इसी अध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि बाह्य जाति की कोई विशेषता नहीं है, तप, संयम, श्रुत की विशेषता है। ऐश्वर्य ऋद्धि का अर्थ भी बाह्य धन सम्पत्ति नहीं है, कारण कि ऊपर इसी गाथा 37 में हरिकेशी मुनि को ऋद्धिसम्पन्न और महाप्रभावशाली कहा है। छठे गुणस्थान एवं उससे ऊपर के गुणस्थानवर्ती साधु के सदैव उच्च गोत्र का ही उदय होना कहा है। अतः उसके जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ व ऐश्वर्य किसी की भी कमी नहीं हो सकती। अतः इस कसौटी पर कसने से यह सिद्ध होता है कि जाति, रूप आदि आठों गुण बाह्य नहीं हैं। गोत्रकर्म और अगुरुलघुगुण तन, धन आदि का अहंकार या अहंभाव प्राणी को भोगी व स्वार्थी बनाता है। भोग से पशु प्रकृति एवं स्वार्थपरता से आसुरी, नारकीय प्रकृति पुष्ट होती है। ये दोनों प्रकृतियां नीच गोत्र की द्योतक हैं। दूसरे शब्दों में यूँ कह सकते हैं कि अहंभाव से नीच गोत्र का बंध होता है। इसके विपरीत निरभिमानता तथा विनम्रता व्यक्ति को त्यागी तथा सेवाभावी बनाती है, जिससे मानवी व देवी प्रकृतियाँ पुष्ट होती हैं। मानवी प्रकृति तथा देवी प्रकृति उच्च गोत्र की द्योतक है। अतः निरभिमानता से उच्च गोत्र का बंध होता है। गोत्र कर्म 199
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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