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________________ मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणयई । अणुसियत्तेण जीवे मिउ-मद्दवसंपन्ने अट्ठ- मयट्ठाणाइं निट्ठावेइ । (उत्तराध्ययन अध्ययन 29 सूत्र 50 ) रूव सुय- अमएणं, गोयमा ? जाइअमएणं, कुल-अमरणं, बल- अमएणं, अमरणं, तव - अमएणं, लाभ-अमएणं, इस्सरिय- अमरणं, उच्चा- गोयकम्मा सरीर- जावपओग-बंधे। (भगवतीसूत्र शतक 8, उद्देशक 9, सूत्र 109) मान कषाय को मृदुता से जीते अर्थात् मान कषाय पर विजय से मृदुता गुण प्रकट होता है। मृदुता से जीव अनुद्धत भाव को प्राप्त होता है। अनुद्धतभाव (विनय) से, मृदुता से जीव जातिमद आदि आठ मदों को नष्ट कर देता है । जाति मद, कुल मद, बल मद, रूप मद, तप मद, श्रुत मद, लाभ मद और ऐश्वर्य मद इन आठ मदों को न करने से उच्च गोत्र का बंध होता है । गोयमा ? जाइमएणं, कुलमएणं, बलमएणं, जाव इस्सरियमएणं, णीयागोयकम्मा जाव पओगबंधे। (भगवती सूत्र शतक 8, उद्देशक 9, सूत्र 110 ) अर्थात् जाति मद, कुल मद आदि उपर्युक्त आठ मद करने से अर्थात् मान कषाय से नीच गोत्र रूप पाप प्रकृति का बंध होता है । यह नियम है कि प्राणी जिस वस्तु का मद या अभिमान करता है अर्थात् जिस वस्तु के आधार पर अपना मूल्यांकन करता है उस वस्तु का मूल्य व महत्त्व बढ जाता है और स्वयं उस व्यक्ति का मूल्य घट जाता है। फिर जिसके पास वह वस्तु उससे अधिक है उसके समक्ष वह व्यक्ति अपने को दीन-हीन अनुभव करता है। उससे अपने को निम्न स्तर का, निम्न श्रेणी का मानता है । वह हीनता और अभिमान की अग्नि में जलता रहता है। यह हीनता - दीनता की भावना ही नीच गोत्र का हेतु है । इसके विपरीत जो व्यक्ति अपना मूल्यांकन वस्तु, परिस्थिति आदि के आधार पर नहीं करता है, वह मद रहित एवं निरभिमान हो जाता है । उसमें ऊँच-नीच भाव, छोटे-बड़े का भाव, हीन दीन भाव पैदा नहीं होता है। यही निरभिमानता उच्च गोत्र के उपार्जन का हेतु है । 190 गोत्र कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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