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________________ की परिभाषा करते हुए धवला टीका, पुस्तक 13, पृष्ठ 388 में स्पष्ट कहा है— गोत्र का सम्बन्ध न ऐश्वर्य से है, न योनि से है, न जाति, वंश, कुल परम्परा से है यथा "गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ होती हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । उसकी इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं । शंका - उच्चगोत्र का व्यापार कहाँ होता है? राज्यादि रूप सम्पदा की प्राप्ति में तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति सातावेदनीय कर्म के निमित्त से होती है । पाँच महाव्रतों के ग्रहण करने की योग्यता भी उच्चगोत्र की हेतु नहीं कही जा सकती है, क्योंकि ऐसा मानने पर जो देव और अभव्य जीव पाँच महाव्रतों को नहीं धारण कर सकते हैं, उनमें उच्चगोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से सहकृत सम्यग्दर्शन से होती है तथा ऐसा मानने पर तिर्यंचों और नारकियों के भी उच्चगोत्र का उदय मानना पड़ेगा, क्योंकि उनके सम्यग्ज्ञान होता है। आदेयता, यश और सौभाग्य की प्राप्ति में इसका व्यापार होता है; यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इनकी उत्पत्ति नामकर्म के निमित्त से होती है । इक्ष्वाकु कुल आदि की उत्पत्ति में भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योंकि वे काल्पनिक हैं, अतः परमार्थ से उनका अस्तित्व ही नहीं है। इसके अतिरिक्त शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण साधुओं में उच्चगोत्र का उदय देखा जाता है । सम्पन्न जनों से जीवों की उत्पत्ति में इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस तरह तो म्लेच्छराज से उत्पन्न हुए बालक के भी उच्च गोत्र का उदय प्राप्त होता है। अणुव्रतियों से जीवों की उत्पत्ति में उच्चगोत्र का व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर औपपातिक देवों में उच्च गोत्र के उदय का अभाव प्राप्त होता है तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते हैं। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है और इसीलिए उसमें कर्मपना भी घटित नहीं होता । उसका अभाव होने पर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्योंकि वे दोनों एक-दूसरे के अविनाभावी हैं। इसलिए गोत्रकर्म है ही नहीं । समाधान- नहीं, क्योंकि जिनवचन के असत्य होने में विरोध आता है । वह विरोध भी वहाँ उसके कारणों के नहीं होने से जाना जाता है। गोत्र कर्म 188
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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