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________________ क्षयोपशम से मिलने वाली शान्ति, स्वाधीनता, प्रसन्नता, प्रमोद के सुखों में आकुलता, पराधीनता, जड़ता आदि दोष नहीं हैं, अतः इन सुखों का भोग श्रेयस्कर है, श्रेष्ठ भोग है, सुभग है, सौभाग्य है । कामना रहित होने से अभाव का अभाव होता है। अभाव का न रहना ऐश्वर्य है, संपन्नता है। जो संपन्न है वही सौभाग्यशाली है । जो उपादेय कार्य करता है, दूसरों का अहित करने से अपने को बचाता है। उपादेय कार्य करता है । वह ही आदर के योग्य है, आदेय है और जो उदारता एवं आत्मीयता पूर्वक दूसरों के हित में, सेवा में तत्पर होता है वह ही प्रशंसा का, यशकीर्ति का पात्र होता है। इसके विपरीत जो स्वार्थी एवं दूसरों का अहित करने वाला होता है वह अनादर का, अनादेय का पात्र होता है और जो अनुदार एवं दूसरों का शोषण करने वाला होता है वह अयशकीर्ति का पात्र होता है आशय यह है कि जो विषय-भोगों के सुख में आबद्ध है, स्वार्थी है, अनुदार है वह दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति का पात्र है तथा जो विषय-भोग के सुख को घटाता है, त्यागता है, हिंसा आदि दोषों से अपने को बचाता है, श्रावक व साधु है, उसके कभी भी दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति का उदय नहीं होता है। सच्चे श्रावक एवं साधु के सदैव सुभग, आदेय एवं यशकीर्ति का उदय रहता है। भले ही इनके पास ान-संपत्ति, विषय सुखों की भोग - सामग्री व सुविधा कुछ नही हो तथा इनका कोई अनादर तथा निंदा कर रहा हो। क्योंकि ये प्रकृतियाँ जीव विपाकी हैं। अतः इनका सम्बन्ध जीव के भावों से एवं आचरण से है । बाह्य भोग - सामग्री न्यून हो 1 ना दुर्भग तथा अधिक होना सुभग नहीं है। दूसरों के द्वारा आदर दिया जाना और अनादर किया जाना, अनादेय नहीं है तथा दूसरों के द्वारा प्रशंसा, यशकीर्ति और निंदा किया जाना अयशकीर्ति नहीं है। सुभग, आदेय तथा यशकीर्ति ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं । अतः आत्मा के पवित्र भावों व पवित्र आचरण से इनका सम्बन्ध है इसी प्रकार दुर्भग, अनादेय तथा अयशकीर्ति पाप प्रवृत्तियाँ हैं, अतः आत्मा के अपवित्र - दूषित भावों एवं दुराचरण से इनका सम्बन्ध है । नाम कर्म 183
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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