SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभ-विहायोगति- जिस कर्म के उदय से जीव की चाल शुभ हो अर्थात् उसे चलने में कठिनाई नहीं हो, वह शुभ विहायोगति है। __ अशुभ-विहायोगति- जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अशुभ हो अर्थात् उसे चलने में कष्ट हो वह अशुभ विहायोगति है, जैसे लंगड़ा कर चलना, पोलियो होने से पैरों को घसीटते हुए चलना। कुछ विद्वान् हाथी जैसी चाल को शुभ और ऊँट जैसी चाल को अशुभ मानते हैं, परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं प्रतीत होता है, कारण कि पशु, पक्षी एवं सब जीवों को अपनी स्वाभाविक व सहज चाल बुरी नहीं लगती है। ऊँट को भी अपनी चाल अच्छी ही लगती है, बुरी नहीं। जिज्ञासा- विहायस् आकाश को कहते हैं। वह सर्वत्र व्याप्त है। अतः जो भी गति होती है वह आकाश में ही होती है, अन्यत्र हो ही नहीं सकती, फिर गति शब्द के साथ विहायस् विशेषण क्यों लगाया गया? __ समाधान-विहायस् विशेषण न लगाकर यदि केवल गति ही कहते तो नाम कर्म की प्रथम प्रकृति का नाम भी गति होने के कारण पुनरुक्ति दोष की आंशका हो जाती और इन दोनों गतियों की भिन्नता को जानने में भ्रान्ति हो जाती। अतः यहाँ जीव की चाल को गति समझने और नरक आदि गति को ग्रहण न करने हेतु विहायस् शब्द लगाना उपयुक्त ही है। अगुरुलघु नाम कर्म । जिस प्रकृति के उदय से कान, नाक, आँख, हाथ , पैर आदि शरीर के अवयव छोटे-बड़े न होकर यथोचित हों, वह अगुरुलघु नामकर्म प्रकृति है। इसका उदय प्रत्येक प्राणी में सदैव रहता है। _अगुरुलघु का अर्थ होता है न तो छोटा, न बड़ा अर्थात् जैसा चाहिये वैसा होना। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संतुलित अवस्था ही अगुरुलघु है। जीवन चलाने के लिए शरीर के हाथ, पैर, नाक, कान आदि अंगों का संतुलित रहना आवश्यक है। शरीर में यह एक प्रकृति प्रदत्त प्रक्रिया है जिससे उसका सिर, नाक, कान, आँख, पैर, पेट, कमर आदि संतुलित अनुपात में होते हैं। यही संतुलित अनुपात शरीर को स्वस्थ रखता है एवं टिकाये रखता है। इसीलिए शरीर को संतुलित रखने वाली अगुरुलघु प्रकृति का उदय सदा माना गया है। किसी व्यक्ति का पेट या शरीर भारी अर्थात् गुरु हो जाता है तो यह अगुरुलघु प्रकृति के निर्बल होने 168 नाम कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy