SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 235
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगों की वक्रता एवं विसंवाद अशुभ नाम कर्म के और इसके विपरीत योगों की सरलता एवं सद्प्रवृत्ति शुभ नाम कर्म के बंध के हेतु हैं। योगों की वक्रता का सम्बन्ध माया कषाय है तथा योगों की सरलता का सम्बन्ध माया कषाय में कमी से है। माया को जीतने से ऋजुभाव प्राप्त होता है। यह ऋजुभाव ही सरलता है। ऋजुता से ही जीव काया, भाव, वाणी की सरलता एवं अविसंवादिता को प्राप्त करता है तथा इनकी अऋजुता अर्थात् वक्रता (कुटिल-व्यवहार) से काया, भाव, वाणी की वक्रता एवं विसंवाद को प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि माया कषाय अशुभनामकर्म के बंध में विशेष हेतु है। इसके विपरीत इसमें कमी से शुभनामकर्म का बंध होता है। मन एवं वचन की प्रवृत्ति के लिए शरीर धारण करना होता है। अतः नाम कर्म में मन, वचन, तन तथा इनकी प्रवृत्ति गर्भित है। मन, वचन, तन की प्रवृत्ति से आत्मा में परिस्पंदन होता है, जिससे आत्मा का कर्म के साथ योग होता है। अतः कारण में कार्य का आरोप कर उपचार से मन, वचन, तन की प्रवृत्ति को भी योग कहा जाता है। योग शरीर के ही अंग हैं। अतः योग और शरीर में जातीय एकता है। अंडे ओर मुर्गी की उत्पत्ति के समान वे एक दूसरे की उत्पत्ति के हेतु हैं अथवा जैसे बीज से फल व फल से बीज की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार शरीर से योग की प्रवृत्ति होती है, योगों की प्रवृत्ति से कर्म बंध होता है जिसके फलस्वरूप शरीर मिलता है। यह योग प्रवृत्ति दो प्रकार से होती है- एक भोगमय और दूसरी सेवामय। भोगमय प्रवृत्ति विकारी प्रवृत्ति है, अस्वाभाविक, अनैसर्गिक, अप्राकृतिक है। यह विकृत वक्र-विसंवादी प्रवृत्ति होने से अशुभ है। विकारी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप मिलने वाला शरीर विकारी, विकलेन्द्रिय, न्यून चेतना वाला एवं जड़वत् (स्थावर) होता है। इसके विपरीत सेवा-प्रवृत्ति प्रकृति का अनुसरण करने वाली (अविसंवादी) एवं सहज, सरल तथा शुभ होती है। मन से तन सर्जन सिद्धान्तानुसार इसके परिणाम से पूर्ण इन्द्रियाँ, सुभग आदि शुभ प्रकृतियाँ मिलती हैं। सीधे शब्दों में कहें तो मन, वचन, तन की दुष्प्रवृत्तियों से अशुभ नाम कर्म का और सद् प्रवृत्तियों से शुभ नाम कर्म का बंध होता है। 156 नाम कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy