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________________ वह मानव है। मृदु व सरल हृदय मानव वह है जो दूसरों के दुःख-सुख की अनुभूति अपने हृदय में करता है अर्थात् दूसरों के दुःख में दुःख की और सुख में प्रसन्नता की अनुभूति करता है। हृदय की ऐसी स्थिति को सहानुभूति कहा जाता है। सहानुभूति का ही दूसरा नाम मानवता है। मानवता या सहानुभूति में मृदुता व विनम्रता ओत-प्रोत है। मानवता के विकास में ही मानव का विकास है। अर्थात् जिसके हृदय में जितनी गहरी सहानुभूति है, वह उतना ही उच्चकोटि का मानव है। मृदुता का विरोधी गुण कठोरता है। जहाँ कठोरता है वहाँ रस कहाँ? वहाँ नीरसता है। जहाँ नीरसता है वहाँ सुख नहीं, दुःख है, जीवन नहीं, मृत्यु है। इसके विपरीत जहाँ मृदुता है वहाँ सरसता है। जहाँ सरसता है, सहानुभूति है, वहाँ सुख है, जीवन है। परन्तु अपरिपक्व बुद्धि वाला व्यक्ति सहानुभूति युक्त हृदय की सरसता के सुख की अनुभूति से परिचित नहीं होता। उसकी दृष्टि इन्द्रिय-सुख तक सीमित होती है। वह इन्द्रिय सुख में गृद्ध होकर अपना विवेक खो देता है। फलतः इन्द्रिय सुख की सामग्री की प्राप्ति को ही जीवन मान लेता है। फिर उस सामग्री के संग्रह में जुट जाता है। सामग्री का संग्रह करने में दूसरों को जो हानि और दुःख होता है, उसका अनुभव संकीर्ण व स्वार्थपरक हृदय नहीं कर पाता। वह हृदयहीन हो जाता है। हृदयहीनता निम्नस्तर के अविकसित पशु, पक्षी व स्थावर प्राणियों की द्योतक है। हृदयहीन को दया नहीं आती। जहाँ दया नहीं वहाँ मृदुता नहीं, जहाँ मृदुता नहीं, वहाँ मानवता नहीं, जहाँ मानवता नहीं वहाँ मानव देह पाने का कोई लाभ या अर्थ नहीं। ऐसे मानव और पशु में कोई अन्तर नहीं। ऐसा व्यक्ति मानव देह धारण करके भी मृदुता, विनम्रता, सरलता-जनित सरसता व उच्च-स्तरीय सुख से वंचित रह जाता है। हृदयहीनता या अमानवता की उत्पत्ति का मुख्य कारण है स्वार्थपरता या लोभ प्रवृत्ति । स्वार्थी या लोभी व्यक्ति प्राप्त वस्तुओं की ममता व अप्राप्त वस्तुओं के संचय को ही जीवन का सर्वस्व समझता है। अपने लोभ के लिये दूसरों का अहित करने में संकोच नहीं करता और न किसी की कुछ सहायता ही करने को उद्यत होता है। वह बड़ा क्रूर, कृपण, निर्दय और अनुदार हृदय वाला होता है जो अमानवता है। इस प्रकार विचार करने से ज्ञात होता है कि 140 आयु कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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