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________________ सम्बन्ध है, वहाँ ही मैथुन है, वहाँ ही वेद का उदय है। शरीर आदि पर-पदार्थों से अपने निज स्वरूप का अलग अस्तित्व क्षपक श्रेणी में ही अनुभव होता है। इसलिए वहाँ ही वेद का क्षय व उपशम संभव है। इसके पूर्व तो देह के साथ आत्मा का सम्बन्ध, लगाव व जुड़ाव बना ही रहता है। अतः वेद का उदय रहता ही है। नपुंसक का अर्थ है कुछ भी करने में सक्षम नहीं होना। जिसमें अपने कर्मोदय से मिले शरीर, इन्द्रिय आदि के संयोग की दासता से अपने को अलग करने की क्षमता व योग्यता नहीं है, जो भोग योनि है, जिसमें पुरुषार्थ करके संयोग का विच्छेद करने का पुरुषार्थ नहीं है, जो प्रवृत्ति करने में स्वतंत्र नहीं है, प्रकृति के आधीन है वह नपुंसवेदी है। जो प्रवृत्ति करने में पर के आलंबन की अपेक्षा रखता हैं, वह स्त्रीवेदी है। जो स्वयं अपने पुरुषार्थ से प्रवृत्ति करता है, वह पुरुषवेदी है। विद्वानों को वेद का वास्तविक अर्थ खोजना चाहिए। मोहनीय कर्म के बंध के कारण मोहनीय कर्म के बंध के कारण बताते हुए भगवती सूत्र में कहा है गोयमा? तिव्वकोट्याए, तिब्वमाणयाए, तिब्वमाययाए, तिव्वलोट्याए, तिव्व दंगणमोणिज्जयाए, तिब्वचरितमोखणिज्जयाए मोहणिज्जकम्मासरीरप्पओगजावपओग बंधे। भगवती सूत्र, शतक 8, उद्दे. 9 हे गोतम! तीव्र क्रोध करने से, तीव्र मान करने से, तीव्र माया करने से, तीव्र लोभ करने से, तीव्र दर्शन मोहनीय से, तीव्र चारित्र मोहनीय से और मोहनीय कार्मण-शरीर–प्रयोग नामकर्म के उदय से मोहनीय कार्मण शरीर-प्रयोग-बंध होता है। ___ ऊपर कहा गया है कि क्रोध, मान, माया, लोभ, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय की तीव्रता से मोहनीय कर्म बंधता है। इस बंध प्रक्रिया में तीव्र शब्द अपना महत्त्व रखता है। कारण कि मोहनीय कर्म के बंध का सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों में से किसी एक कषाय का उदय सदैव रहता है और उस कषाय से चारों कषायों की प्रायः सभी प्रकृतियों एवं नोकषायों में बंध योग्य प्रकृतियों का बंध अवश्य होता है। यह बंध दो प्रकार का होता है ___ एक प्रकार का बंध वह है जो उदयमान (विद्यमान) कषाय में मंदता होने से होता है। इस प्रकार के बंध में मोहनीय कर्म की बध्यमान प्रकृतियों 130 मोहनीय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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