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________________ कर्म का उपार्जन करते हैं। इस प्रकार दूसरों को असाता उपजाना स्वयं को असाता उपजाना है। भगवती सूत्र के उपर्युक्त उद्धरण में सातावेदनीय का हेतु अनुकम्पा एवं असातावेदनीय का हेतु क्रूरता कहा है। अनुकम्पा का हेतु क्रोध कषाय का क्षय होता है, जैसा कि कहा है कोलविजएणं वंतिं जणयइ-उत्तरा.अ.29 सूत्र 68 रखमावणयाए पल्लायणभावमुवगए य अव्व-पाण-भूय-जीवसत्तेगु मित्तीभावमुप्पाएइ। -उत्तरा.अ.29 सूत्र 17, सर्वप्राणिषुमैत्री अनुकम्पा – राजवार्तिक अ.1 सूत्र 2 अर्थात् क्रोध पर विजय (क्षय) से क्षमा गुण प्रकट होता है। क्षमापना से प्रहलाद (आह्लाद) भाव उत्पन्न होता है, फिर सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न होता है और सर्वप्राणियों के प्रति मैत्रीभाव होना ही अनुकम्पा है। अनुकम्पा से सातावेदनीय कर्म का उपार्जन होता है। तात्पर्य यह है कि क्रोध कषाय के क्षय (क्षीणता) से सातावेदनीय कर्म का उपार्जन होता है साथ ही चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय भी होता है। जैसा कि कहा है अणुस्सुयाए णं जीवे अनुकंपए, अणुब्भडे, विगययोगे, चरित्त-मोटणिज्जं कम्मरखवेइ- उत्तरा. अ. 29 सूत्र 29 अर्थ- विषय सुख के प्रति विरति से प्राणी उत्सुकता से पूरित होकर अनुकम्पावान बनता है तथा वह अनुद्धत एवं शोक रहित होकर चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है। अभिप्राय यह है कि कषाय के क्षय से क्षमा गुण, क्षमा से मैत्री भाव, मैत्री भाव से अनुकम्पा गुण प्रकट होता है। क्षमाशीलता आदि गुणों से युक्त जीव ही सब जीवों के प्रति वैर भाव का त्याग कर उनके सब अपराधों को क्षमा कर सकता है, जैसाकि कहा है- कोले पीइंपणारोड़ (दशवै. अ.8 गाथा 38) अर्थात् क्रोध प्रीति का नाश करता है। अतः जहाँ क्रोध नहीं है वहाँ ही प्रीति भाव है। प्रीति ही मैत्री है। मैत्री जहाँ होती है वहाँ वैर भाव नहीं होता- क्षमा भाव होता है। कहा भी है खामेमिसव्वे जीवा, सब्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएयु, वेरंमज्झं न केण।। -आवश्यक सूत्र, 5वां आवश्यक वेदनीय कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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