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________________ 6. 5. दर्शन-आशातना-निर्विकल्पता की उपेक्षा करना, निर्विकल्पता से उदासीन रहना, निर्विकल्पता के संपादन के लिए प्रयत्नशील नहीं होना दर्शन आशातना है। दर्शन विसंवाद- निर्विकल्पता की उपलब्धि में अपने को असमर्थ मानना, उससे निराश होना, निर्विकल्पता असंभव है ऐसा मानकर निर्विकल्पता के लिए पराक्रम न करना दर्शन विसंवाद है। दर्शनावरण का अन्य घातिकर्मों से सम्बन्ध यह नियम है कि पहले दर्शन होता है, फिर ज्ञान होता है। दर्शन हैस्व-संवेदन। दर्शन ज्ञान के समान प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदवाला नहीं होता है। कारण कि दर्शन स्व-संवेदन है। अतः दर्शन मात्र प्रत्यक्ष ही है, परोक्ष नहीं। अन्य प्रकार से दर्शन ज्ञान के समान दो प्रकार का होता है यथाक्षायोपशमिक और क्षायिक। वस्तु के सन्निकर्ष, स्पर्श व इन्द्रिय के माध्यम से होने वाला दर्शन क्षायोपशमिक है अथवा दृश्य के संयोग या संपर्क से, पर के संपर्क से होने वाला दर्शन क्षायोपशमिक है। दृश्य और इन्द्रिय के माध्यम के बिना स्वतः स्व में स्थिति से होने वाला स्वानुभूति रूप दर्शन क्षायिक दर्शन है। इसमें दृश्य और दृश्यभाव का अभाव होकर केवल 'दर्शन' ही रहता है। अतः यह केवलदर्शन कहा जाता है। क्षायोपशमिक दर्शन तीन प्रकार का है- चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन और अवधि दर्शन। चक्षु-अचक्षु दर्शन दृश्यमान (सन्निकर्ष या सामीप्य में आए) पदार्थ का इन्द्रिय के संयोग व संपर्क से होता है। इसमें इन्द्रियाँ माध्यम बनती हैं। चक्षु दर्शन चक्षु इन्द्रिय के माध्यम से और अचक्षु दर्शन शेष चार इन्द्रियों के माध्यम या निमित्त से होता है। अवधि दर्शन बिना इन्द्रियों के माध्यम से रूपी पदार्थों का होता है। यह आत्म-प्रत्यक्ष होता है। मन का दर्शन मनःपर्याय दर्शन नहीं होता है, कारण कि मानसिक क्रिया सविकल्प ही होती है अर्थात मन की प्रवृत्ति ज्ञान रूप ही होती है, कभी भी दर्शन रूप नहीं होती है। दूसरे शब्दों में कहें, तो मन निर्विकल्प नहीं होता। निर्विकल्प होने पर 'मन' सक्रिय नहीं रहता, अमन हो जाता है। अतः मन का दर्शन नहीं होता, मन सविकल्प ज्ञान रूप ही होता है। क्षायोपशमिक अवस्था में पर का संयोग, संपर्क, सम्बन्ध रहता है। जो पर के अतीत होने पर होती है, वह क्षायिक अवस्था है (जो चार घाती कर्मों दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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