SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होता है। स्वभाव स्वयंसिद्ध होने से उसमें तर्क नहीं होता। कहा भी है‘वितर्कः श्रुतम्।' (तत्त्वार्थसूत्र, 9.45), आचार्य सिद्धसेनगणि ने इस सूत्र की टीका में वितर्क का अर्थ विगततर्क (तर्क रहित होना) किया है। 'सुदं वितक्क' (भगवती आराधना, गाथा 1875 एवं 1878) अर्थात् वितर्कज्ञान ही श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान ही तत्त्वज्ञान है। जब तक यह स्वभाव का स्वाभाविक स्वयंसिद्ध ज्ञान आवश्यकता, मांग और साध्य के रूप में होता है तब तक श्रुतज्ञान कहा जाता है और जब यह श्रुतज्ञान वीतराग अवस्था में एकत्व, वितर्क, अविचार शुक्लध्यान में ज्ञाता से एकरूप हो जाता है अर्थात् अनुभव व बोधरूप हो जाता है तो केवलज्ञान कहलाता है। श्रुतज्ञान एवं केवलज्ञान में दूसरा भेद यह है कि श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है, जबकि केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। श्रुतज्ञान पूर्णज्ञान नहीं है और केवलज्ञान पूर्णज्ञान है। सामान्यतः यह मान्यता है कि जिनके राग-द्वेष क्षय हो गये हैं ऐसे वीतराग केवली संकल्प-विकल्प रहित होते हैं। इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि केवली में केवलज्ञानोपयोग व केवल दर्शनोपयोग ये दोनों उपयोग माने हैं अर्थात् साकार, अनाकार, सविकल्प और निर्विकल्प दोनों उपयोग माने गये हैं और कषाय पाहुड की गाथा 20 के अनुसार इन उपयोगों का उत्कृष्ट काल दो श्वासोच्छवास से कम है। इसका आशय यह हुआ कि दो श्वासोच्छवास के जितने अल्पकाल में केवली में ज्ञानोपयोग होता है और ज्ञानोपयोग सविकल्प ही होता है। ज्ञानोपयोग निर्विकल्प भी होता है, ऐसा आगम व प्राचीन टीकाओं में कहीं नहीं कहा गया है। अतः केवली के ज्ञान को निर्विकल्प मानना आगम सम्मत नहीं है। प्रश्न उपस्थित होता है कि केवली को क्या जानना शेष रहा, जिसके लिए वे विचार या विकल्प करते हैं। यदि जानना शेष रहा, तो मानना होगा कि उन्हें पूर्ण ज्ञान नहीं हुआ। इस सम्बन्ध में चिन्तन करने से ऐसा ज्ञात होता है कि केवली को किसी विषय या सिद्धान्त को समझने रूप जिज्ञासा, चिन्तन, विचार या विकल्प नहीं रहता है। किन्तु उनको वर्तमान परिस्थिति में क्या है, यह विचार होना स्वाभाविक है। उदाहरणार्थ केवली सहजभाव से वीतरागता पूर्वक चल रहे हैं। उनके समक्ष कुआ, पहाड़, खाई, कीचड़ आ गया, तो विचारपूर्वक ही मार्ग निश्चित करेंगे, बदलेंगे। वीतराग भगवान ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy