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________________ Ixlvi] जैसे- भोज द्वारा स्वीकृत गर्व स्नेह, धृति और मति-इन स्थायीभावों से निष्पन्न क्रमशः उद्धत, प्रेय, शान्त और उदात्त रसों के अनौचित्य को अपने तर्क द्वारा स्थापित करके प्रेय का शृङ्गार में तथा उद्धत, शान्त और उदात्त रस का वीर रस में अन्तर्भाव को स्वीकारते हैं तथा भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित आठ स्थायीभावों से निष्पन्न होने वाले आठ ही रसों का समर्थन करते हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि इन्होंने अपने पूर्ववतो आचार्यों के मतों का खण्डन ही किया है, स्थल-स्थल पर भरत, रुद्रट, धनञ्जय, भोज और शारदातनय आदि आचार्यों के मतों का और उनके प्रतिपाद्य विषय का यथोचित उपयोग भी किया है। शिङ्गभूपाल ने अपने पूर्ववर्ती समस्त आचायों के ग्रन्थों का अध्ययन और मनन करके उनके यथोचित तथ्यों को अपनी रचना में उपस्थापित किया है। पूर्ववर्ती ग्रन्थों में प्रतीत होने वाली कमियों और त्रुटियों को दूर करके अपने ग्रन्थ में प्रतिष्ठित किया है जिससे उनका ग्रन्थ सर्वाङ्गीण, सारगर्भित, महत्त्वपूर्ण तथा उपादेय हो गया है। रीति, वृत्ति और रस इत्यादि के विवेचन के प्रसङ्ग में अनेक आचार्यों का मत उद्धृत करके सम्भावित गुत्थियों को सुलझा भी दिया है। इसी कारण इनसे परवर्ती आचार्य रूपगोस्वामी, विश्वेश्वर, कविचन्द्र और टीकाकार मल्लिनाथ अत्यधिक प्रभावित होकर अपनी कृतियों में इन्हें समादरित किया है। रसार्णवसुधाकर में शिङ्गभूपाल ने दुरूह और प्रमुख स्थलों को विस्तृत विवेचन द्वारा सुगम तथा बोधगम्य बनाने के लिए अत्यधिक प्रयत्न किया है और इसमें उन्हें सराहनीय सफलता भी प्राप्त हुई है। इसमें शिङ्गभूपाल ने अपनी सूक्ष्म ग्राह्यता का परिचय भी दिया है। जैसे धनञ्जय ने दशरूपक में अवहित्था का लक्षण इस प्रकार किया हैलज्जाद्यैर्विक्रियागुप्तावहित्थाङ्गविक्रिया अर्थात् लज्जा इत्यादि भावों के कारण उत्पन्न (हर्षादि) अङ्ग के विकारों को छिपाना अवहित्था कहलाता है और उसमें अङ्गों में होने वाले विकार ही अनुभाव होते हैं। इस पर धनिक अपने अवलोक में मात्र एक उदाहरण देकर सन्तुष्ट हो गये हैं। इसी प्रकार भोज और शारदातनय ने भी अवहित्था का विवेचन किया है। शिङ्गभूपाल ने इन आचार्यों द्वारा की गयी कमियों पर ध्यान देते हुए अवहित्था का लक्षण और कार्य-कारण विषयक सात उदाहरण देकर विषय को सुस्पष्ट कर दिया है। यह तो मात्र एक निदर्शन है। शिङ्गभूपाल ने ऐसे अनेक स्थलों पर विषय को विस्तृत करके अनेक उदाहरणों द्वारा उसको परिपुष्ट किया है किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि रसार्णवसुधाकर में अनावश्यक विस्तार किया गया है। शिङ्गभूपाल ने अनावश्यक और अनर्थक प्रसङ्गों को अल्पमात्र भी प्रश्रय नहीं दिया है।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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