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________________ तृतीयो विलासः [३७३] यहाँ सारिका के बोलने को सिद्ध करने के लिए अस्पष्ट अक्षर होने के कारणों का कथन होने से हेतु है। अथ प्राप्तिः___ एकदेशपरिज्ञानात् प्राप्तिः शेषाभियोजनम् । (४) प्राप्ति- एक स्थान पर जानकारी हो जाने के कारण अन्य स्थान पर उसे जोड़ना (लागू करना) प्राप्ति कहलाता है।।१०३पू.।। यथा विक्रमोर्वशीये (४.१७) हंस प्रयच्छ मे कान्तां गतिरस्यास्त्वया हृता । विभावितैकदेशेन देयं यदभियुज्यते ।।575।। इत्यत्र हंसे प्रियागमनमात्रविभाव्यप्रियाहरणाभियोगः प्राप्तिः। जैसे विक्रमोर्वशीय (४/१७) मेंराजा- (हाथ जोड़कर) हे मराल, मेरी प्यारी मुझे लौटा दो, तुमने उसकी गति का अपहरण किया है, (मैंने अपनी प्रिया की वस्तु उस गति का प्रत्यभिज्ञा कर लिया है), क्योंकि जिसके पास चोरी का कुछ भी सामान उपलब्ध हो जाता है वह पूरी अपहृत पूँजी का देनदार होता है।।575।। यहाँ हंस के प्रति प्रिया के आगमन को समझकर प्रिया के हरण का अभियोग प्राप्ति है। अथोदाहरणम् - वाक्यं यद् गूढतुल्यार्थं तदुदाहरणं मतम् ।।१०३।। (५) उदाहरण- (साभिप्राय) समान गूढ़ अर्थ वाला वाक्य उदाहरण कहलाता है।।१०३उ.। यथा भिज्ञानशाकुन्तले (१/२१ पद्यात्पूर्वम्) 'राजा- (स्वगतम्) कथमात्मापहारं करोमि। भवतु, एवं तावदेनां वक्ष्ये। (प्रकाशम्) भवति यः पौरवेण राज्ञा धर्माधिकारे नियुक्तः सोऽहमविघ्नक्रियोप-लम्भाय धर्मारण्यमिदमायातः।' इत्यारभ्य 'शकुन्तला- तुम्हे अवेष। किं वि हिअए करिअ मन्तेष। ण वो वअणं सुणिस्स। (युवामपेतम् किमपिडदये कृत्वा मन्त्रयेथे। न युवयोर्वचनं पोष्यामि' इत्यन्तम् अत्र साभिप्रायगूढार्थतया तदिदमुदाहरणम्। जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल में (१/२५ पद्य से पूर्व) "राजा- (अपने मन में) इस समय मैं अपने को किस प्रकार प्रकट करूं अथवा अपने को किस प्रकार छिपाऊँ। अच्छा इनसे इस प्रकार कहता हूँ। (प्रकट रूप से)
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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