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________________ तृतीयो विलासः [ ३५१] दूरादत्र भव प्रदक्षिणगतिः स्थाणोरिदं मन्दिरं किञ्चित् तिष्ठ तपस्विनस्तव पुरो यावत्प्रयान्त्यध्वनः ।।(10/59)555।। इत्युपक्रम्य"अगस्त्यः का दीयतां तव रघूद्वह सम्यगाशीनिष्कण्टकानि विहितानि जगन्ति येन । आशास्महे ननु तथापि सह स्ववीरै भूकाश्यपोपमसुतद्वितया वधूः स्यात् ।।(10/64)556।। रामः- परमनुगृहीतं रघुकुलम्।" इत्यन्तेन अगस्त्यदचाशीदिरूपप्रसाद-कथनात् प्रसादः। जैसे वहीं (बालारामायण में) "हे वायु के समान वेग वाले पुष्पक! आगे कोई मुनि धर्म का पान कर रहा है अतः तुम छाया मत करो, क्योंकि कोई मुनि सूर्य पर एकाग्र दृष्टि लगाकर स्थित है। यह शिव का मन्दिर है, यहाँ प्रदक्षिणा करो। तुम्हारे आगे से तपस्वी लोग जब तक अन्यत्र चले जॉय तब तक कुछ देर ठहरो" (10.59)।।555 ।। यहाँ से लेकर"अगस्त्य हे रघुश्रेष्ठ! मैं आपको कौन सा आशीर्वाद दूँ जिसने संसार को निष्कण्टक बना दिया है तथापि आशा करता हूँ कि अपने सुग्रीवादि वीरों के साथ ही वधू (सीता) पृथिवी के इन्द्र (दशरथ) के समान दो पुत्रों वाली होगी। (10.64)।।556 ।। राम- रघुकुल अत्यन्त अनुगृहीत हुआ" यहाँ तक अगस्त्य द्वारा दिये गये आशीर्वाद रूप प्रसन्नता के कथन के कारण प्रसाद है। अथानन्दःअभिलषितार्थसमागममानन्दं प्राहुराचार्याः । (6) आनन्द- अभिलषित वस्तु के समागम (मिल जाने) को आचार्य लोग आनन्द कहते हैं।।६२॥पू.॥ यथा तत्रैव (बालरामायणे) "रामः-हं हो विमानराज! विमुच्य वसुधासविषवर्तिनीं गतिं किञ्चदुच्चैर्भवं कुतूहलिनी जानकी दिव्यलोकदर्शनव्यतिकरस्य । (ऊर्ध्वगतिनाटितकेन) यथा यथारोहति बद्धवेगं_ व्योम्नः शिखां पुष्पकमानताङ्गि ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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