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________________ [३०२] रसार्णवसुधाकरः - तथा च भरतः (नाट्यशाख१९/३२) वच: सातिशयं श्लिष्टं काव्यप्रबन्धरसाश्रयम् । पताकास्थानकमिदं द्वितीयं परिकीर्तितम् ।। भरत के अनुसार "काव्य प्रबन्ध के रस के आश्रयभूत अत्यधिकश्लिष्ट कथन द्वितीय पताकास्थानक कहलाता है। यथा उत्तरामचरिते (१/३८) रामः - इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवर्तिनयनयोरसावस्याः स्पर्शे वपुषि बहुलश्चन्दनरसः । अयं कण्ठे बाहुः शिशिरमसृणो मौक्तिकसरः किमस्याः न प्रेयो यदि परमसह्यस्तु विरहः ।।501 ।। (प्रविश्य) प्रतिहारी-उवट्टिओ (उपस्थितः) । रामः- अये कः ! इत्यत्र भविष्यतः सीताविरहस्य सूचनादिदंश्लिष्टं नाम द्वितीयं पताकास्थानकम्। जैसे उत्तररामचरित में (१/३८) वह सीता घर में लक्ष्मी है, यह नेत्रों में अमृतशलाका है, इसका यह स्पर्श शरीर में प्रचुर चन्दन का रस है और यह बाहु गले पर शीतल और कोमल मुक्ताहार है। इसकी क्या वस्तु प्रियतर नहीं है? परन्तु इसका वियोग तो बहुत ही असहनीय है।।५०१।। (प्रवेश करके) प्रतिहारी- उपस्थित है। राम- अरे! कौन (उपस्थित) है। यहाँ होने वाले सीता के विरह की सूचना होने के कारण द्वितीय पताकास्थानक है। तथा च भरतः (नाट्यशाले १९.३३) अर्थोपक्षेपणं यत्त लीनं सविनयं भवेत । श्लिष्टप्रत्युत्तरोपेतं तृतीयमिदमिष्यते ।।इति।। और उसी प्रकार आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र १९.३३ में कहा है- प्रच्छन्न (छिपे) रूप से विनयपूर्वक छिपे श्लिष्ट अर्थ वाले पद द्वारा प्रत्युत्तर वाले कथानक से युक्त प्रयोजन का निर्देश तृतीय पताकास्थानक होता है। यथा वेणीसंहारे (२/२३)राजा लोलांशुकस्य पवनाकुलितांशुकान्तं
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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