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________________ | २६४] रसार्णवसुधाकरः नति से मानशान्ति जैसे संकेत वाली बात से (उत्पन्न) रोष के कारण प्रियतम के अपने पैरों पर गिरकर प्रणाम करने पर भी भौंहों को कुछ टेढ़ी की हुई यौवना (नायिका) ने आँखों के कोरों से बहने वाले आँसुओं की बूंदों से दोनों स्तनों पर धागे से रहित हार की लड़ियाँ बना दिया।।458।। तूष्णी स्थितिरुपेक्षणम् ।।२१०।। ५. उपेक्षा- शान्त (मौन) रहना उपेक्षा कहलाता है।।२१०उ.।। यथा (गाथासप्तशत्याम् २.८) चरणोआसणिसण्णस्स तस्स हमारिमो अणाणवन्तस्स । पाअङ्ग द्वावेष्ठिअकेसदिढा अड्ढणसुहोल्लं ।।459।। (चरणावकाशनिषण्णस्य तस्य स्मरामोऽनालपतः। पादाङ्गुष्ठावेष्ठितकेशदृढाकर्षणमुखार्द्राम् ।।) अत्र शय्यायां चरणावकाशस्थितिमौनादिभिरुपेक्षा। तया जनिता मानस्यशान्तिश्चरणाङ्गष्ठावेष्ठितकेशदृढाकर्षणेन व्यज्यते। जैसे (गाथासप्तशती २.८ में) •(यह सखी के प्रति नायिका की उक्ति है-) हे सखी, मैं वह सुख अब तक नहीं भूलती, जब वह मेरे पैरों पर सिर रखकर पड़ा हुआ था और मैं उसके बालों को पैर के अगूठे में लपेट कर खींचने लगी थी।।459।।। यहाँ शय्या पर चरणों के बीच में पड़े होने पर भी मौन इत्यादि द्वारा उपेक्षा हुई है। उस उपेक्षा से उत्पन्न मान की शान्ति पैर के अंगूठे में लपेटकर बालों के खींचने से व्यक्त हो रही है। आकस्मिकरसादीनां कल्पना स्याद् रसान्तरम् । ६. रसान्तर:- अकस्मात् रसादि की कल्पना करना रसान्तर कहलाता है।।२११पू.।। यादृच्छिकं बुद्धिपूर्वमिति द्वधा निगद्यते ।। २११।। रसान्तर के प्रकार- यह दो प्रकार का होता है - १. यादृच्छिक २. बुद्धिपूर्व।।२११उ.॥ अनुकूलेन दैवेन कृतं यादृच्छिकं भवेत् । (१). यादृच्छिक- अनुकूल भाग्य के द्वारा किया गया यादृच्छिक होता है।।२१२पू.।। तेन मानशान्तिर्यथा (काव्यादर्शद्प्युद्धृतम्) मानमस्या निराकर्तुं पादयोर्मे पतिष्यतः । उपकाराय दिष्ट्यैतदुदीर्णं घनगर्जितम् ।।460।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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