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________________ द्वितीयो विलासः [ २३३] प्रविश्य हेमाद्रिगुहागृहान्तरं निनाय बिभ्यद् दिवसानि कौशिकः ।।423।। अतिलौकिक कारण से उत्तम जन का भय (जैसे शिशुपालवध १/५३) में जिस प्रकार अस्थिर दृष्टि उल्लू परम तेजस्वी सूर्य को देखने में असमर्थ होकर हिमालय की गुफा में प्रवेश कर डरता हुआ दिन व्यतीत करता है, उसी प्रकार रावण के भय से चञ्चल नेत्र वाले इन्द्र ने सूर्य के समान तेजस्वी रावण को देखने में असमर्थ होकर अपनी अमरावती पुरी छोड़कर हिमालय की कन्दरा में दिन व्यतीत किया ।। 423 ।। अत्र वर्णनीयतयोत्तमं रावणं प्रति देवेन्द्रस्य (भीतत्ववर्णनाद्) मध्यमत्वं न शङ्कनीयम् । यतः प्रकृतिरेव कारणं पुंसामुत्तमत्वे न वर्णना। तथासति 'प्रियेण तस्यानपराधबाधिता' ( शिशुपालनवधे १.६१) इत्यादिनौग्र्यादिभावकथनमुत्तमस्य रावणस्य नोचितं स्यात् । तस्मादुत्तमप्रकृतेरपि देवेन्द्रस्य लोकोत्तरवरप्रदानभीषणाद् रावणाद् भयमुत्पद्यते । यहाँ (भयभीत होने का ) वर्णन होने से उत्तम रावण के प्रति देवेन्द्र के मध्यमत्व की शङ्का नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पुरुषों की उत्तमता में स्वभाव ही कारण होता है, वर्णन नहीं। ऐसा होने पर 'प्रियेण तस्यानपराधबाधता' इत्यादि द्वारा उत्तम रावण की उग्रता इत्यादि का कथन उचित नहीं होगा। इसी कारण से उत्तम स्वभाव वाले इन्द्र का लोकोत्तर वर प्राप्त करने वाले भीषण रावण से भय उत्पन्न होता है। अथोत्तमस्य हेतुजभयानङ्गीकारे - ( सुभाषितसुधानिधावप्युद्धृतम्) विद्राणे वित्तनाथे सवितरि तरले जातशङ्के शशाङ्के । वैकुण्ठे कुण्ठगर्वे द्रवति मघवति क्लान्तकान्तौ कृतान्ते । अब्रह्मण्यं ब्रुवाणे वियति शतधृतावुद्धृतैकाग्रहस्ते । पायाद् वः कालकूटं झटिति कवलयन् लीलया नीकण्ठः ।।424।। उत्तम के हेतुज भय को स्वीकार करने पर - वित्तनाथ सविता के उद्बुद्ध हो जाने पर, सशङ्कित चन्द्रमा के थर्रा जाने पर, वैकुण्ठ में कुण्ठित गर्व वाले इन्द्र के द्रवीभूत हो जाने पर, यमराज की कान्ति के मलिन हो जाने पर और आकाश में ब्रह्मा द्वारा 'अनर्थ हो गया' ऐसा कहे जाने पर एक (दाहिने हाथ ) की हथेली पर लेकर कालकूट (विष) को लीला द्वारा झट से खाते हुए नीलकण्ठ (शङ्कर) तुम लोगों की रक्षा करें ।। 424 ।। इत्यत्र विद्रावतारल्यादिभिरुद्घोषितस्य द्रव्यनाथसवित्रादिगतभयस्यापलापः कथमभिधेयः । तदपलापेऽपि कालकूट भक्षणस्य सुकरत्वात् तत्कार्यनिर्वहणे स्फीतस्य नीलकण्ठप्रभावोत्कर्षस्य कथं मस्तकोशमनं स्यात् । यहाँ उद्बुद्ध होने, थर्रा जाने इत्यादि के द्वारा उद्घोषित द्रव्यनाथ सविता इत्यादि
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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