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________________ द्वितीयो विलासः [ २१७] अर्धविकसित (आधी खुली हुई) नेत्रों के कोरों वाला, उस कारणभूत (शिव और पार्वती) के मिथुन (जोड़े) को मैं भजता हूँ।।394 ।। यहाँ शरीर की एकता के नित्य-सम्बन्ध से आश्रय- वृत्ति वाली पार्वती और परमेश्वर की रति अनुभूत सम्पूर्ण राग की परिपूर्णता से अपनी दशा से प्रकाशित नित्य भोगरूप वाली निरन्तर रोमाञ्च इत्यादि अनुभावों द्वारा व्यञ्जित होती है। अन्ये प्रीतिं रतेर्भेदमाममन्ति न तन्मतम् ।।१२१।। असम्प्रयोगविषया सेयं हर्षान्न भिद्यते । प्रीति का हर्ष में अन्तर्भाव- अन्य आचार्य प्रीति को रति का भेद मानते हैं, किन्तु यह मत उपयुक्त नहीं है। सम्प्रयोग का विषय न होने से यह प्रीति हर्ष से अलग नहीं हैं।।१२१उ.-१२२पू.।। अथ हास: भाषणाकृतिवेषाणां क्रियायाश्च विकारतः ।।१२२।। लौल्यादेश्च परस्थानमेषामनुकृतेरपि । विकारश्चेतसो हासस्त्वत्र चेष्टा समीरिता ।।१२३।। दृष्टेर्विकासो नासोष्ठकपोलस्पन्दनादयः । (२) हास- भाषण, आकृति, वेष तथा कार्य के विकार से और चञ्चलता इत्यादि से तथा दूसरे के स्थान का अनुकरण करने से मन का विकार हास कहलाता है। उसमें नेत्रों का विकास (फैलना) तथा नाक, ओठ और कपोल (गालों) का फड़कना इत्यादि चेष्टाएँ कही गयी हैं।।१२२उ.-१२४पू.॥ भाषाविकारो भाषणासम्बन्यत्वादिः। आकृतिर्विकृतिः अतिवामनत्वदन्तुरत्वादिः। वेषविकारो विरुद्धालङ्कारकल्पना। क्रियाविकारो विकटगतित्वादिः एषामुदाहरणानि कैशिक्यां शुद्धहास्यजे नर्मणि निरूपितानि द्रष्टव्यानि। भाषाविकार= भाषणासम्बन्धत्व इत्यादि। आकृति में विकार- अत्यधिक विपरीतता, बडे-बड़े अथवा आगे निकले हुए दाँत वाला होना इत्यादि। वेषविकार असङ्गत स्थान पर आभूषण पहनना। क्रियाविकार- विकराल गति वाला होना। इनके उदाहरण कैशिकी वृत्ति के निरूपण के स्थल पर शुद्धहास्यज नर्म में दिये गये हैं। (वहाँ उन्हें) देख लेना चाहिए। लौल्याद् यथा (अनर्घराघवे २.२०) बालेयतण्डुलनिलोपकदर्थिताभिरेताभिरग्निशरणेषु सधर्मिणीः । उत्साहहेतुमपि दण्डमुदस्यमानामाधातुमिच्छति मृगे मुनयो हसन्ति ।।395।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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