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________________ [१६४] रसार्णवसुधाकरः जैसे करुणाकन्दल में यमराज भी यादव कुल से डरते हैं तो फिर मुझ वृद्ध की क्या गति! वह यह मेरी बुद्धि का विपर्यास ही है सभी बान्धव मार डाले गये यह कथन, विश्वास योग्य नहीं है। ओह! मेरा अन्तःस्थल घबरा रहा है।।281 ।। अथापस्मृति: धातुवैषम्यदोषेण, भूतावेशादिना कृतः ।।४५।। चित्तक्षोभस्त्वपस्मारस्तत्र चेष्टा प्रकम्पनम् । धावनं पतनं स्तम्भो भ्रमणं नेत्रविक्रिया ।।४७।। स्वौष्ठदंशभुजास्फोटलालाफेनादयोऽपि च । (१२) अपस्मृति- धातु की विषमता के दोष से तथा भूत के प्रभाव इत्यादि से चित्त का उत्तेजित होना (संवेग) अपस्मृति कहलाता है। उसमें काँपना, दौड़ना, गिरना, जड़ हो जाना, भ्रमण करना, नेत्रविकार, अपना ओठ काटना, भुजा का चटकाना, (मुँह से) लार और फेन का निकलना इत्यादि चेष्टाएँ होती हैं।।४६उ.-४८पू.।। यथा लालाफेनव्यतिकरपरिक्लेदि भुग्नोष्ठपार्श्व गायं गायं कलितरुदितं प्रोन्नमन्तं नमन्तम । स्तब्धोद्धृततक्षुभितनयनं मण्डलेन भ्रमन्तं भूताविष्टं कमपि पुरुषं तत्र वीथ्यामपश्यम् ।।282 ।। जैसे मैने वहाँ गली में भूत से ग्रस्त किसी व्यक्ति को देखा जिसके लार और झाक के मिश्रण से गीले ओष्ठ नीचे झुके हुए थे, जिसका बार-बार गाना रोदन से युक्त था, जो (कभी) उपर उठता था (और कभी) नीचे झुकता था, जिसके जड़, उमड़ कर बहते हुए और कांपते हुए नेत्र चारों ओर भ्रमण कर रहे थे।।282।। दोषवैषम्यजस्त्वेष व्याधिरेवेत्युदास्महे ।।४८।। रोग की विषमता से उत्पन्न (अपस्मृति) तो व्याधि होती है, इसलिए उसके प्रति हम उदासीन हैं।।४८उ.॥ अथ व्याधिः दोषोद्रेकवियोगाद्यैर्ध्वरः स्यादू व्याधिरत्र तु । गात्रस्तम्भः श्लथाङ्गत्वं कूजनं मुखशोषणम् ।।४९।। स्रस्ताक्षताङ्गनिक्षेपनिःश्वाधास्तु स द्विधा ।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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