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________________ कातन्त्रव्याकरणम् द्वारेणैव सिद्धत्वादिति भावः । अभूवन्निति । अत्रापि पूर्ववत् सिचो लुक् । “भुवो वोऽन्तः परोक्षाद्यतन्योः " ( ३।४।६२) इति वकारागमः ।। ५७० । ६० [बि० टी० ] अन०। 'सिजादिभ्यः' इति कृते सिध्यति, आदिशब्दस्य व्यवस्थावाचित्वादेवैषां ग्रहणं भविष्यति ? सत्यम् । गणकृतमनित्यमिति हेम: ।। ५७० । [समीक्षा] ‘अकार्षुः, अददुः, अविदुः’ इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'अन्' (प्र० पु० ब० व०) प्रत्यय के स्थान में उस आदेश आवश्यक होता है। इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि ने प्रथमपुरुष - बहुवचन में 'भि' प्रत्यय किया है तथा आदेश में भी जकारानुबन्ध की योजना की है जुस् । उनका सूत्र है ‘सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च’” (अ० ३।४९०९ ) । विदादिगुण के पाठ से वहाँ 'गणकृतमनित्यम्' (का० परि० २९) इस परिभाषा के अनुसार उसादेश वैकल्पिक हो सकता है। इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि केवल ह्यस्तनीविभक्ति के ही अन् को उस् आदेश प्रवृत्त होगा, अद्यतनी में तो सिच् प्रत्यय होने पर ही उसादेश होता है - 'गणकृतमनित्यमिति वा स्यात्, ह्यस्तन्यन एवार्थात्' (दु० वृ० ) ! [विशेष वचन ] - - १. आदिशब्दो व्यवस्थावचन: (दु० टी० ) । २. ह्यस्तन्यन एवार्थादिति अद्यतन्याः सिद्वारेणैव सिद्धत्वादिति भाव: (वि० प० ) । ३. गणकृतमनित्यमिति हेम : (बि० टी० ) । [रूपसिद्धि] १. अकार्षुः । अट् + कृ + सिच् + अन् उस्। 'डु कृञ् करणे' (७।७) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष - बहुवचन 'अन्' प्रत्यय, "अड् धात्वादिर्ह्यस्तन्यद्यतनीक्रियातिपत्तिषु” (३।८।१६ ) से धातुपूर्व अडागम, “सिजद्यतन्याम्” (३।२।२४) से सिच् प्रत्यय, “ऋतोऽवृवृञः” (३।७।१६ ) से अनिट्, “सिचि परस्मै स्वरान्तानाम्” (३।६।६ ) से ऋ को वृद्धि, "निमित्तात् प्रत्ययविकारागमस्थः सः षत्वम्” (३।८।२६) से सिच् प्रत्ययगत सकार को षकार, प्रकृत सूत्र से अन् को उस तथा सकार को विसर्गादेश ‘“रसकारयोर्विसृष्ट:’” (३। ८। २) सूत्र द्वारा। - - २. उदगुः। उत् + अट् + इण् – गा + अन् – उस् । उत् उपसर्गपूर्वक ‘इण् गतौ’ (२११३) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष - बहुवचन 'अन्' प्रत्यय, 'इणो गा’” (३।४।८४) से इण् धातु को 'गा' आदेश, अडागम, सिच् प्रत्यय, "अनिडेकस्वरादातः ' (३।७।२१) से अनिट्, “इण्स्थादापिबतिभूभ्यः सिचः परस्मै " ( ३।४ । ९३) से सिच् का लुक्, प्रकृत सूत्र से अन् को उस तथा " आकारस्योसि " ( ३ | ६ । ३७) से आकार का लोप ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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