SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ कातन्त्रव्याकरणम् [बि० टी०] आशि० । दामादिपाठान्नित्यमिति चेत् तदा स्थाधातुवर्जितानामेव स्यात् ।। ५६९। [समीक्षा 'देयात्, धेयात्, पेयात्' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'दा' आदि धातुओं के अन्त में विद्यमान आकार के स्थान में एकारादेश की अपेक्षा होती है। इसका विधान दोनों ही आचार्यों ने किया है। पाणिनि का सूत्र है – “एलिङि'' (अ०६४।६७)। वृत्तिकार दुर्गसिंह ने संयोगादि धातुओं से एकारादेश के विषय में कहा है कि वा संयोगादेरस्थ इति वक्तव्यम्'। तदनुसार 'स्था' धात् को छोड़कर 'ग्ला-म्ला' आदि संयोगादि धातुओं से एकारादेश विकल्प से प्रवृत्त होता है। अत: 'ग्लेयात्- ग्लायात्' आदि दो दो रूप सिद्ध होते हैं। पाणिनि ने एतदर्थ स्वतन्त्र सूत्र बनाया है- “वाऽन्यस्य संयोगादे:” (अ०६४।६८)। इसमें 'अन्य' पद से 'स्था' भिन्न धातुओं के अवबोध में गौरव अवश्य होता है। वृत्तिकार दुर्गसिंह ने सूत्र में ही 'अस्थ' पढ़कर लाघव का आश्रय लिया है। [विशेष वचन] १. केचिदिच्छन्ति, केचिनेच्छन्ति। यो नेच्छति तन्मतामह प्रमाणम् इत्यर्थः (दु० टी०; वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. देयात्। दा + यात् - आशी:। 'डु दाञ् दाने' (२। ८४) धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष - एकवचन ‘यात्' प्रत्यय, "आशिषि च परस्मै' (३। ५। २२) से अगुण। तथा प्रकृत सूत्र से धातुघटित आकार को एकारादेश। २. धेयात्। धा + यात् – आशी:। 'डु धाञ् धारणपोषणयोः' (२। ८५) धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक ‘यात्' प्रत्यय तथा अन्यप्रक्रिया पूर्ववत्। ३. मेयात्। मा + यात् - आशीविभक्ति। 'माङ् माने, मा माने, मेङ् प्रतिदाने' (२। ८६, २६; १४६२) धातु से आशीविभक्तिसंज्ञक 'यात्' प्रत्यय तथा पूर्ववत् प्रक्रिया। ४. गेयात्। गा + यात् - आशी:। 'गाङ् गतौ' (१। ४५९) धातु से 'यात्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्। ५. पेयात्। पा + यात् – आशी:। 'पा पाने' (१।२६४) धातु से ‘यात्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्। ६. स्थेयात्। स्था + यात् – आशी:। 'ष्ठा गतिनिवृत्तौ' (१ । २६७) धातु से यात् प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्। ७. अवसेयात्। अव + सो + यात् - आशीः। 'अव' उपसर्गपूर्वक 'षो अन्तकर्मणि' (३।२१) धातु से यात् प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत्।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy