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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपादः [समीक्षा] 'पप्रच्छतुः, वव्रश्चतुः, बभ्रज्जतुः' आदि शब्दरूपों की सिद्धि उभयत्र भिन्न भिन्न रूप में की गई है। पाणिनि के अनुसार "लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्” (अ० ६ | १ | १७) सूत्र द्वारा अभ्यासघटित रेफ को सम्प्रसारण करके 'वव्रश्चतु:' आदि शब्द- रूप सिद्ध किए गए हैं, जबकि कातन्त्रकार प्रकृत सूत्र द्वारा सम्प्रसारण का निषेध करके द्वित्व होने पर रेफ का भी लोप करके उक्त रूप सिद्ध करते हैं। इस प्रकार प्रकृत विषय में दोनों व्याकरणों की शैली बिल्कुल भिन्न है। [रूपसिद्धि] १. पप्रच्छतुः । प्रच्छ + परोक्षा अतुस्। ‘प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्' (५।४९) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष - द्विवचन - अतुस् – प्रत्यय, इस धातु को "ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिप्रच्छति०' ( ३।४।२) आदि सूत्र से प्राप्त सम्प्रसारण का प्रकृत सूत्र से निषेध, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु " ( ३।३।७) से प्रच्छ् को द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, प् की रक्षा-'र्―च्छ्' का लोप, तथा "रसकारयोर्विसृष्टः " ( २ । ३ । ६३) से सकार को विसर्गादेश | ३५ - - २. पप्रच्छुः। प्रच्छ् + परोक्षा- उस् । 'प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्' (५।४९) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष बहुवचन ‘उस्' प्रत्यय्, तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् । ३. वव्रश्चतुः । व्रश्च् + परोक्षा अतुस् । 'ओ व्रश्चू छेदने' (५१९) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष – द्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् । - - ४. वव्रश्चुः। व्रश्च् + परोक्षा – उस् । 'ओ व्रश्चू छेदने' (५। १९) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष – बहुवचन 'उस्' प्रत्यय एवं अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् । ५. बभ्रज्जतुः। भ्रस्ज् + परोक्षा – अतुस् । 'भ्रस्ज् पाके' (५४) धातु से परोक्षासंज्ञक प्र० पु० द्विवचन ‘अतुस्’ प्रत्यय, प्राप्त सम्प्रसारण का प्रकृत सूत्र से निषेध, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, 'भ' की रक्षा 'र् - स् – ज्' का लोप, "द्वितीयचतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ” (३ । ३ ११) से भकार को बकार, "धुटां तृतीय:” (३।८।८) से स् को द् "तवर्गश्चटवर्गौ ० (२४४६ ) इत्यादि से द् को ज् तथा सकार को विसर्गादेश । " परोक्षा ६. बभ्रज्जुः । भ्रस्ज् + उस्। 'भ्रस्ज पार्क' (५/४) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद - प्रथमपुरुष - बहुवचन 'उस्' प्रत्यय तथा अन्य प्रक्रिया पूर्ववत् ।। ५५८ । ५५९. सन्ध्यक्षरान्तानामाकारोऽविकरणे [ ३ । ४ । १९] - [सूत्रार्थ] सन्ध्यक्षरान्त धातु के अन्तिम वर्ण को आकारादेश होता है, विकरण से भिन्न प्रत्यय के परवर्ती होने पर ।। ५५९ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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