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________________ तृतीये आख्याताध्याये चतुर्थः सम्प्रसारणपादः ३. लोके छिन्नकर्णलाङ्ग्ल: श्वा श्वैव भवति नाश्वादिरिति। तद्वदत्रापीति भाव: (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. विध्यते। व्यध् + यण् + ते। 'व्यध ताडने' (३।२५) धातु से कर्म अर्थ में “सार्वधातुके यण्'' (३।२।३१) से 'यण' प्रत्यय, अगुणविधान, "ग्रहिज्यावयिव्यधि०'' (३।४।२) इत्यादि से 'य' को सम्प्रसारण, पुन: वकार को सम्प्रसारण प्राप्त होने पर प्रकृत सूत्र से उसका निषेध।। २. वेविध्यते। व्यध् + य + ते। 'व्यध ताडने' (३।२५) धातु से क्रियासमभिहार अर्थ में चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय, “अहिज्यावयिव्यधि०' (३।४।२) इत्यादि से 'य' को सम्प्रसारण 'इ', पुनः प्राप्त सम्प्रसारण का निषेध, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, धकारलोप, अभ्यासघटित इकार को गुण, "ते धातवः'' (३।२।१६) से 'वेविध्य' की धातुसंज्ञा तथा वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद- प्रथमपुरुष-एकवचन 'ते' प्रत्यय। ३. विव्यथे। व्यथ् + परोक्षा-ए। 'व्यथ दुःखभयचलनयोः' (१।४९०) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद-प्रथमपुरुष–एकवचन 'ए' प्रत्यय, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, "व्यथेश्च'' (३।४।५) से अभ्यासघटित 'य' को सम्प्रसारण, थकार-लोप, पुन: सम्प्रसारणप्राप्ति का प्रकृत सूत्र से निषेध। ४. विविधतुः। व्यध् + परोक्षा-अतुस्। 'व्यध्' धातु से परोक्षासंज्ञक प्रथमपुरुषद्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय, सम्प्रसारण, द्विर्वचनादि तथा “रसकारयोर्विसृष्ट:' (३। ८।२) से स को विसर्गादश। ५. विविधुः। व्यध् + परोक्षा-उस्। 'व्यध्' धात् से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद प्रथमपुरुष-बहुवचन 'उस्' प्रत्यय, सम्प्रसारण, द्विर्वचनादि तथा सकार को विसर्गादेश। ६. संविव्यतुः। सम् + व्यञ् + परोक्षा-अतुस्। 'व्येञ् संवरणे' (१६१२) धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-द्विवचन 'अतुस्' प्रत्यय, सम्प्रसारण, “तद् दीर्घमन्न्यम्'' (४१ ५२) से दीर्घ, द्वित्व, अभ्याससंज्ञा, अभ्यासघटित दीर्घ को ह्रस्व, "य इवर्णस्या" (३।४।५८) से इकार को यकार तथा सकार को विसदिश। ७. संविव्युः। सम् + व्यञ् + परोक्षा-उस्। 'सम्' उपसर्गपूर्वक 'व्येञ्' धातु से परोक्षाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद-प्रथमपुरुष-बहुवचन उस्' प्रत्यय, सम्प्रसारण, द्विर्वचनादि तथा सकार को विसर्गादेश।। ५५६। ५५७. न वशेश्चेक्रीयिते [३। ४। १७] [सूत्रार्थ] चेक्रीयितसंज्ञक 'य' प्रत्यय के परवर्ती होने पर 'वश्' धातु को सम्प्रसारण नहीं होता है।। .७। [दु० वृ०] वशेश्चक्रीयिने पर संप्रसारणं न भवति। वावश्यते ।। ५५७ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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