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________________ तृतीये आख्याताध्यायेऽष्टमो घुडादिपादः ४८३ इति मत्वर्थीयेन विना बहुव्रीहिणैव सिध्यति किमिन् प्रत्ययेन ? सत्यम्, गमकत्वात् । कर्मधारयादपीन् प्रत्ययो यथाविधानं वेदितव्यमिति दर्शयति । तेनासंज्ञाभूतत्वात् कर्मधारयान्मत्वर्थीयो न भवति, तत्र बहुव्रीहिरेवेति । न च वक्तव्यं भवति - अन्वर्थसंज्ञाबलाादेवाप्रयोगित्वं सिद्धम्, किमनेनेति । मन्दमतिबोधनार्थत्वादिति ।।८५१। [समीक्षा प्रत्यय, आदेश, आगम आदि में कुछ विशेष प्रयोजनों से अनबन्ध लगाने की शाब्दिक आचार्यों की परम्परा रही है । इन अनुबन्धों के प्रत्ययादिस्वरूप की रक्षा हेतु इन्हें लगाया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे 'गेहूँ, चना' आदि धान्यकणों के रक्षार्थ उनके साथ एक-एक आवरण भी जुटा रहता है । अनुबन्धों की विशेषता यह है कि उच्चारण के बाद इनका ग्रहण नहीं होता, जिसके फलस्वरूप इनके स्थानों में कोई भी कार्य नहीं किया जाता है, परन्तु इन अनुबन्धों को निमित्त मानकर अनेक अभीष्ट कार्य सम्पन्न होते हैं । पाणिनीय व्याकरण में अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके उनका लोप कर दिया जाता है । कातन्त्रव्याकरण में इसे अन्वर्थसंज्ञा के रूप में स्वीकार किया गया है । पाणिनि के इतसंज्ञाविधायक तथा लोपविधायक सूत्र इस प्रकार हैं - "उपदेशेऽजनुनासिक इत्, हलन्त्यम्, आदिर्बिटुडवः, ष: प्रत्ययस्य, .. चट्, लशक्वतद्धिते, तस्य लोपः” (अ० १।३।२-३, ५-९)। [विशेष वचन] १. अन्वर्थसंज्ञाविधानात् सिध्यति मन्दमतिबोधनार्य परिभाष्यते (दु० टी०) । २. केचिद् यद्ग्रहणं न पठन्ति । अप्रयोगी अनुबन्धसंज्ञो भवति (द० टी०)। ३. तेनसंज्ञाभूतत्वात् कर्मधारयान्मत्वर्थीयो न भवति, तत्र बहुव्रीहिरेवेति (वि० प०)। [रूपसिद्धि] १. अधीते । अधि + इङ् + वर्तमाना-ते । 'अधि' उपसर्गपूर्वक 'इङ् अध्ययने' (२१५६) धातु से वर्तमानासंज्ञक आत्मनेपद प्र० पु० - ए० व० 'ते' प्रत्यय, आत्मनेपद का विधान “कर्तरि रुचादिङानुबन्धेभ्यः" (३।२।४२) के नियमानुसार प्रवृत्त होता है । अन् विकरण, उसका लुक, तथा समानदीर्घ - इकारलोप ।। २. कुरुते । कृ + उ + वर्तमाना-ते । 'डु कृञ् करणे' (७७) धातु से वर्तमानासंज्ञक 'ते' प्रत्यय, 'ब्' अनुबन्ध के कारण यहाँ “इन्-ज-यजादेरुभयम्" (३।२।४५) से उभयपद की प्रवृत्ति होती है । 'उ' विकरण, गुण तथा अकार को उकारादेश ।।८५१। ८५२. शिडिति शादयः [३।८।३२] [सूत्रार्थ "श्-ष्-स्-ह' इन चार वर्णों की 'शिट्' संज्ञा होती है ।।८५२। [दु० वृ०] शादयो वर्णा हपर्यन्ताः शिडिति संज्ञिताः । शिट्प्रदेशाः - "शिट्परोऽघोषः" (३।३।१०) इत्येवमादयः ।।८५२।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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