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________________ ४७४ कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] ‘शिष्यते, उष्यते, जक्षतुः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ सकार को षकारादेश का विधान दोनों व्याकरणों में किया गया । पाणिनि का सूत्र है - "शासिवसिघसीनां च " (अ०८।३।६०) । यहाँ शब्दावली तथा उदाहरण आदि में समानता ही दृष्ट होती है । [विशेष वचन ] १. अविकारस्थ इत्यारम्भ: (दु० वृ० ) । २. ‘“सजुषाशिषो र:” (२।३।५१) इत्यत्राशीर्ग्रहणस्योपलक्षणत्वाद् भाष्यसम्मतमेतत्। सूत्रकारमतं तु क्विबेवात्र न दृश्यते वाक्यकारसम्मतमेतत् (दु० टी०) । [रूपसिद्धि] १. शिष्यते । शास् + यण् + ते । 'शासु अनुशिष्टौ ' (२।३९) धातु से वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक आत्मनेपद- प्र० पु० ए० व० 'ते' प्रत्यय, " सार्वधातुके यण्" (३/२/३९) से यण् प्रत्यय, “शासेरिदुपधाया अण्व्यञ्जनयोः ” ( ३।४।४८) से शास्धातुघटित आकार को इकारादेश तथा प्रकृत सूत्र द्वारा सकार को षकारादेश । - २. उष्यते । वस् + यण् + ते । 'वस निवासे' (१।६१४) धातु से भाव अर्थ में वर्तमानासंज्ञक ‘ते’ प्रत्यय, यण् प्रत्यय, "स्वपिवचियजादीनां यणपरोक्षाशीः षु” ( ३।४।३) से वकार को सम्प्रसारण उकार तथा प्रकृत सूत्र से सकार को षकारादेश । " ३. जक्षतुः । अद् + परोक्षा- अतुस् । 'अद भक्षणे' (२1१) धातु से परोक्षसंज्ञक परस्मैपद प्र० पु० - द्विव० 'अतुस्' प्रत्यय, "वा परोक्षायाम्" ( ३।४।८०) से 'अद्' को ‘घस्लृ’ आदेश, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु ” ( ३।३।७ ) से 'घस्' को द्वित्व, पूर्ववर्ती ‘घस्’ की अभ्याससंज्ञा, “अभ्यासस्यादिर्व्यञ्जनमवशेष्यम्" ( ३।३।९) से सकार का लोप, “द्वितीय-चतुर्थयोः प्रथमतृतीयौ ” ( ३।३।११) से घकार को गकार, “कवर्गस्य चवर्ग:” (३।३।१३) से गकार को जकार, “गमहनजनखनघसामुपधाया स्वरादावनण्यगुणे” (३।६।४३) से 'घस्' की उपधा अकार का लोप, "अघोषेष्वशिटां प्रथम:” (३।८।९) से घकार को ककार, प्रकृत सूत्र से सकार को षकार तथा 'क् ष्' के संयोग से 'क्ष' वर्ण की निष्पत्ति ॥८४७| ८४८. स्तौतीनन्तयोरेव षणि [ ३।८।२८ ] [सूत्रार्थ] नामिसंज्ञक वर्ण, ककार तथा रेफ के परे 'स्तु' एवं इनन्त धातुओं में विद्यमान सकार को षकारादेश होता है यदि उससे सन् प्रत्ययस्थ सकार के स्थान में प्रवृत्त षकार उपस्थित हो तो ॥ ८४८! [दु० वृ० ]. निमित्तात् परः प्रत्ययविकारागमस्थः स्तौतीनन्तयोरेव षत्वभूते सनि सः षत्वमापद्यते । तुष्टृषति, सिषेधयिषति, सुष्वापयिषति । स्तौतीनन्तयोरेवेति किम् ? सिसिक्षति, सुसूषति ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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