SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कातन्त्रव्याकरणम् [समीक्षा] ‘जग्राह, उवाच, सुष्वाप, इयाज' इत्यादि परोक्षाविभक्तिक प्रयोगों के सिद्ध्यर्थ अभ्यासघटित अन्तस्थावर्णो के सम्प्रसारण की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति दोनों ही आचार्यों ने की है। पाणिनि का सूत्र है – “लिट्यभ्यासस्योभयेपाम्'' (अ० ६।१। १७)। “परोक्ष लिट'' (अ० ३।२।११५) सूत्र द्वारा पाणिनि ने जिस परोक्षभूत अर्थ में 'लिट् लकार का प्रयोग किया है, उस अर्थ में कातन्त्रकार का सूत्र है – “परोक्षा'' (३। १ । १३)। तदनुसार यहाँ ‘परोक्षा' शब्द का प्रयोग समझना चाहिए। [विशेष वचन] १. स्वपिवचियजादीनां यणाशिषा: परोक्षायां ततोऽभ्यासस्येति योगविभागगौरवं स्यात् (दु० टो०)। २. व्यवहितस्यापि ग्रहादेः परिग्रहार्थमुभयेषां ग्रहणमिति (दु० टी०)। ३. अथ परोक्षाग्रहणं किमर्थम्, अनन्तरत्वादिह परोक्षाऽनुवतिष्यते। न च वक्तव्यम् - यणाशिषारप्यनुवृत्तिः स्यात्, तयारभ्यासस्याभावात् (वि० प०)। ४. अन्यथा च सामर्थ्यप्राप्तागुणेऽभ्यासे परोक्षायां कथं विषयान्तरं प्रतिबन्धुं क्षमते इति सम्प्रदाय: (बि० टी०)। ५. तथा च टीकाकार: - यणाशिषारभ्यासाभावात् परोक्षेवानन्तरा निमित्तम् इति कल्पना गरीयसीति, तथापि व्यवहितपाठ एव गुरु: (बि० टी०)। [रूपसिद्धि] १. जग्राह। ग्रह + पराक्षा - अट्। 'ग्रह उपादान' (८।१४) धात् से पराक्षभूत अर्थ में परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष – एकवचन 'अट्' प्रत्यय, “चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३। ३। ७) से धातु को द्विवचन, “पूर्वोऽभ्यासः'' (३। ३। ४) से पूर्ववर्ती धातु की अभ्याससंज्ञा, प्रकृत सूत्र द्वारा रकार का सम्प्रसारण ऋकार, "अभ्यासस्यादिय॑ञ्जनमवशेष्यम्'' (३। ३। ९) से हकार का लोप, “ऋवर्णस्याकार:'' (३। ३ । १६) से ऋ को अ, “कवर्गस्य चवर्ग:' (३। ३।१३) से गकार को जकार तथा "अस्योपधाया दीर्घो वृद्धि मिनामिनिचट्स' (३। ६। ५) से उपधासंज्ञक अकार को दोघांदेश। २. जग्रहिथ। ग्रह + परोक्षा – थल्। 'ग्रह उपादाने' (८ । १४) धातु से परोक्षभूत अर्थ में परोक्षाविभक्तिसंज्ञक मध्यमपुरुष – एकवचन 'थल्' प्रत्यय, 'ल' अनुबन्ध का प्रयोगाभाव, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, सम्प्रसारण, हकार – लोप, ऋकार को अकार, ग् को ज् तथा “नित्यात्वताम्'' से इडागम। ३. जिज्यौ। ज्या + परोक्षा - अट। 'ज्या वयोहानो' (८। २३) धातु से परोक्षभूत अर्थ में परोक्षाविभक्तिसंज्ञक प्रथमपुरुष – एकवचन 'अट्' प्रत्यय, द्विर्वचन, अभ्याससंज्ञा, सम्प्रसारण, “आकारादट औ'' (३। ५ । ४१) से अट् को औ तथा “सन्ध्यक्षरे च' (३। ६। ३८) से धातुघटित आकार का लोप। ४. जिज्यिथ। ज्या + इट् + थल्। 'ज्या वयोहानौ' (८। २३) धातु से
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy