SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४७ तृतीये आख्याताध्यायेऽष्टमो घुडादिपादः [बि० टी०] हनि० । ननु तत्रोपधाग्रहणं किमर्थम्, पूर्वतो दीर्घानुवृत्तौ दीर्घस्य स्वरधर्मत्वात् स्वरस्यैव स्यात्, न चेहोपधामन्तरेणान्य: स्वर: सम्भवति? सत्यम्, उपधाग्रहण मुत्तरार्थम्। अन्यथा "नामिनो वॉ०" (३।८।१४) इत्यत्र रेफवकारसम्बन्धिनो नामिनो दीर्घः स्याद् इत्यर्थे सति विवृत्सतीत्यत्र वृधधातुसम्बन्धिन ऋकारस्य दीर्घ: स्यादिति।।८३३। [समीक्षा 'जिघांसति, अधिजिगांसते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ उभयत्र दीर्घविधान निर्दिष्ट है। पाणिनि ने अच् के साथ 'हन्-गम्' इन दोनों धातुओं को भी पढ़ दिया है"अज्झनगमां सनि" (अ०६।४।१६)। कातन्त्रकार ने एतदर्थ दो सत्र बनाए हैं। 'अधि' उपसर्गपूर्वक 'इङ्' धातु के स्थान में होने वाला ही गम् आदेश अभीष्ट है, अत: सूत्र में 'इङ्गम:' पाठ है- इङो गम: इङ्गमः । पदकार के अनुसार 'हनिगमोः' भी पाठ माना जाता है। व्याख्याकारों के अनुसार भाष्यकार ने इस विषय पर चिन्ता नहीं की है। [विशेष वचन] १. तितांसति, तितनिषतीति वा वक्तव्यम् (दु० वृ०)। २. केचित् पदकारमतमाश्रित्य हनिगमोरुपधाया इति पठन्ति (दु० टी०) । ३. भाष्ये तु न चिन्तितमेतत् (दु० टी०)। ४. हनिङोरुपधाया इति सिद्धे गमिग्रहणं स्पष्टार्थम् (दु० टी०) । ५. उपधाग्रहणमुत्तरार्थम् (दु० टी०; बि० टी०)। ६. उत्तरार्थं क्रियमाणमिहापि सुखप्रतिपत्त्यर्थमुच्यते (दु० टी०) । ७. वक्तव्यं व्याख्येयमित्यर्थः । केचिद् दीर्घमिच्छन्ति केचिनेच्छन्ति, तेषां मतमिष्टमित्यर्थः (दु० टी०; वि० प०) । [रूपसिद्धि] १. जिघांसति। हन् + सन् + अन् + ति। 'हन हिंसागत्योः' (२।४) धातु से इच्छार्थक ‘सन्' प्रत्यय, द्विर्वचनादि, प्रकृत सूत्र से उपधा को दीर्घ, धातुसंज्ञा, वर्तमानासंज्ञक 'ति' प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार का लोप । २. अधिजिगांसते। अधि + इङ् - गम् + सन् + अन् + ते। 'अधि' उपसर्गपूर्वक 'इङ् अध्ययने' (२।५६) धात् से इच्छार्थक सन् प्रत्यय, “सनीणिङोर्गमिः” (३।४।८६) से 'गम्' आदेश, द्विवचनादि, प्रकृत सूत्र से उपधा को दीर्घ, अनुस्वार, धातुसंज्ञा, 'ते' प्रत्यय, अन् विकरण तथा अकार का लोप ।। ८३३।। ८३४. नामिनो वोरकुर्छरोर्व्यञ्जने [३।८।१४] [सूत्रार्थ व्यञ्जनवर्ण के परे रहते धातुगत 'र-व्' की उपधा में विद्यमान नामिसंज्ञक वर्ण के स्थान में दीर्घ आदेश होता है 'कुर्-छुर्' को छोड़कर ॥८३४।।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy