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________________ ४१२ कातन्त्रव्याकरणम् नायं दान्त इति। यश्च "स्रदिघसां मरक्' (४।४।४०) इति वचनाद् ‘घस्ल अदने' इति सौत्रो धातुः, भाषायां मरविषय एवेति। तत्र "घोषवत्योश्च कृति" (४।६।८०) इत्यनेनैवेटप्रतिषेधः सिद्ध:, यथा 'घस्मरः' इति।।८११। [समीक्षा] द्रष्टव्य समीक्षा-सूत्र सं० ७९५। [रूपसिद्धि] १. वस्ता। वस् + ता। 'वस निवासे' (१।६१४) धातु से श्वस्तनीविभक्तिसंज्ञक प्र० पु० - ए० व० 'ता' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र द्वारा अनिट् । २. जिघत्सति। अद् - घस्ल + सन्+अन्+ति। अत्तुमिच्छति। 'अद भक्षणे' (२।१) धातु से इच्छार्थ में “धातोर्वा तुमन्तादिच्छतिनैककर्तृकात्' (३।२।४) से 'सन्' प्रत्यय, "अदर्घस्ल सनद्यतन्योः' (३।४।७९) से अद् को 'घस्ल' आदेश, चण्परोक्षाचेक्रीयितसनन्तेषु' (३।३।७) से 'घस्' को द्वित्व, “पूर्वोऽभ्यासः'' (३।३।४) से पूर्ववर्ती 'घस्' की अभ्याससंज्ञा, "अभ्यासस्यादिर्व्यञ्जनमवशेष्यम्' (३।३।९) से सकार का लोप, "द्वितीयचतुर्थयो: प्रथमतृतीयो" (३।३।११) से घकार को गकार, "कवर्गस्य चवर्ग:" (३।३।१३) से गकार को जकार, “सन्यवर्णस्य' (३।३।२६) से अकार को इकार, "सस्य सेऽसार्वधातुके त:' (३।६।९३) से सकार को तकार, “ते धातवः' (३।२।१६) से 'जिघत्स' की धातुसंज्ञा, वर्तमानाविभक्तिसंज्ञक परस्मैपद प्र० पु० - ए० व० 'ति' प्रत्यय, “अन् विकरण: सार्वधातुके" (३।२।३२) से 'अन्' विकरण तथा “अकारे लोपम्' (२।१।१७) से पूर्ववर्ती अकार का लोप।।८११। ८१२. दहिदिहिदुहिमिहिरिहिरुहिलिहिलुहिनहिवहेर्हात् [३।७।३०] [सूत्रार्थ असार्वधातुक प्रत्यय के परे रहते 'दह्, दिह, दुह, मिह्, रि, रु, लि, लुह, नह, वह इन दश हकारान्त धातुओं से उत्तर में इडागम नहीं होता है।।८१२।। [दु० वृ०] एभ्यो दशभ्योऽनिड् भवति। दह-दग्धा। दिह-देग्धा। दह-दोग्धा। मिह-मेढा। रिहरेढा। रुह-रोढा। लिह-लेढा। लुह-लोढा। नह-नद्धा। वह-वोढा। रिहिलुही सौत्रौ घातू। केचिन्न पठन्त्येव । कथं मोढा, सोढा ? मुहे रधादित्वात् सहे: "वेषुसह०" (४।६।८१) इत्यादिना विकल्प एव।।८१२। [दु० टी०] दहि०। रिहिलुही गणे न पठितौ सौत्रौ त्वेतौ वचनाद् हिंसागाय॑योर्वतेते, केचिन्न पठन्त्येव -
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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