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________________ कातन्त्रव्याकरणम् के विविध अभिमत । निपातनविधि का इष्टविषयक होना, निपात विभक्तिप्रतिरूपक तथा त्याद्यन्तप्रतिरूपक होते हैं, एकदेश के स्थान में प्रवृत्त होने वाली विधि को विकार तथा समुदाय के स्थान में प्रवृत्त होने वाली विधि को आदेश कहते हैं | १८. ह्रस्व-गुणादेश, इट्-ईट्-अट्- थ आगम ३५३-७५ [ 'पुनाति' इत्यादि में ह्रस्व, 'रौति' इत्यादि में वृद्धि, 'प्रोोति-प्रोोति' इत्यादि में वैकल्पिक गुण, 'तृणेढि' में इडागम, 'ब्रवीति' इत्यादि में ईडागम, 'आदत् ' इत्यादि में अडागम, 'दित्सा' इत्यादि में तकारादेश, 'अवोचत् ' इत्यादि में आकार, 'अपास्थत' इत्यादि में थकारागम, 'अपप्तत्' इत्यादि में 'पप्ति आदेश, 'कल्पयति' इत्यादि में लकारादेश, 'दुधुक्षति' इत्यादि में चतुर्थवर्णादश । 'सुखप्रतिपत्त्यर्थ-प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थअनित्यार्थ-अनुक्तसमुच्चयार्थ-मन्दमतिबोधनार्थ-उच्चारणार्थ-उनरार्थ-चक्रीयितलुगन्तार्थ' अनेक कार्यों की सिद्धि, 'केनचित् -अन्ये-एके-पूर्वाचार्य-केचित् -ये-वररुचि' आदि आचार्यों के विशिष्ट अभिमत | गण की समाप्ति का बोधक वृत्करण, चक्रीयितलुगन्त का भी भाषा में प्रयोग । पूर्वाचार्यो की संज्ञा चर्करीत . इसका छन्द में प्रयोग, व्यवस्थावारी आदि शब्द, वर्णैकदेश वर्णच्छाया का अनुकरण करते है - 'वर्णकदेशास्तु वर्णच्छायानुकारिणो न पुनर्वर्णाः' । वर्ण उसे कहते हैं जो स्वतन्त्र किसी प्रयत्न से उच्चरित होता है - 'पृथक् प्रयत्ननिर्वयं हि वर्णमिच्छन्त्याचार्या:' तथा मन्दमति के अवबोधार्थ तिप् का ग्रहण | सप्तमः इडागमादिपादः (सूत्रसंख्या-३८) ३७५ - ४२७ १९. इडागम तथा सकारागम ३७५-९६ [भविष्यति' इत्यादि में असार्वधातुक प्रत्यय से पूर्व, 'क्रमिष्यति' इत्यादि में धातु से पर में, 'रोदिति' इत्यादि में प्रत्यय से पूर्व, ईशिषे' इत्यादि में ईश् धातु से, 'ईडिषेगमिष्यति, हनिष्यति, व्यरंसीत्' इत्यादि में धातु से उत्तर में इडागम, ‘ग्रहीता' इत्यादि में इट् को दीर्घ, 'व्यरंसीत् -अयासीत् ' इत्यादि में धातु के अन्त में सकारागम । 'विशेषणार्थस्पष्टार्थ-प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थ-नियमार्थ-यथासङ्ख्य-विघातार्थ-व्याप्त्यर्थ-नित्यार्थ-इष्टसिद्ध्यर्थयोगविभागार्थ' अनेक कार्यों की सिद्धि । 'एके-माघ-उमापतिसेन-टीकाकार-वाक्यकारसूत्रकार-केचित् -य-अन्य:-अपर:' आदि आचार्यों के विविध मतों का विवेचन । इट इत्यादि में टकार का ग्रहण विशेषणार्थ, विपरीतनियम की आशङ्का. धातु का अर्थ क्रिया, 'प्र' आदि उपसर्गों का अर्थभदक होना-'प्रादयश्चोपसर्गा विशेषका भवन्ति'। 'चिक्रंसया
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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