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________________ कातन्त्रव्याकरणम् २९८ (३। ८३, ८४; २ । १४; १ । ६१२)। एवं विज्ञायमाने बहुवचनं प्रसज्येत, भाषायामपि दृष्टयोर्दीधीवेव्योर्ग्रहणमित्यर्थः ।। ७२१ । [वि० प०] दीधी०। न यथासङ्ख्यमिहेति। इवर्णो हि ह्रस्वदीर्घतया भिद्यते, ततस्त्रीणि च निमित्तानीति वैषम्यान्न यथासङ्ख्यमित्यर्थः। द्विवचनं तु समुदायविवक्षायाम्। न त्वित्यादि। 'दीङ् क्षये, धीङ् अनादरे, वेञ् तन्तुसन्ताने, वी प्रजने' (३। ८३, ८४; २।१४; १ । ६१२)। यद्येते चत्वारो धातवः स्युस्तदा बहुवचनं भवतीति भावः ।। ७२१ । [समीक्षा] 'आदीधिता, आवेवीत, आदीध्यते' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ 'दीधी-वेवी' धातुओं के अन्तिम ईकार के लोप की व्यवस्था दोनों ही व्याकरणों में की गई है। पाणिनि का सूत्र है- “यीवर्णयोर्दीधीवेव्योः '' (अ० ७। ४। ५३)। कातन्त्रकार का इवर्णयकारयोः' यह निर्देश जितना स्पष्टावबोधक है उतना ‘यीवर्णयोः' यह पाणिनीय निर्देश नहीं है। कुछ आचार्य 'दीधी-वेवी' धातुओं का प्रयोग केवल वेद में ही मानते हैं, परन्तु आचार्य शर्ववर्मा के अनुसार उनका प्रयोग भाषा = लौकिक संस्कृत में भी होता है। अत: उनके ईकारलोप - हेतु सूत्र बनाया गया है। इस विषय में ज्ञातव्य है कि शर्ववर्मा ने वैदिक शब्दों के साधनार्थ सूत्र नहीं बनाए हैं। [विशेष वचन] १. न यथासंख्यमिहेति, न तु प्रत्येक धातवः, द्विवचनात् (दु० वृ०)। २. इवर्णो हि ह्रस्वदीर्घत्वेन वर्णद्वयम्, समुदायमपेक्ष्य च द्विवचनमिति विवक्षया न यथासङ्ख्यमित्यर्थ: (दु० टी०)। ३. भाषायामपि दृष्टयोर्दीधीवेव्योर्ग्रहणमित्यर्थः (टु० टी०)। [रूपसिद्धि] १. आदीधिता। आङ् + दीधी + ता। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'दीधी' दीप्तिदेवनयो:' (२। ५७) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक प्र० पु०-ए० व० 'ता' प्रत्यय, "इडागमोऽसार्वधातुकस्यादिळञ्जनादेरयकारादे:'' (३। ७। १) से इडागम तथा प्रकृत सूत्र से धातु के अन्तिम ईकार का लोप। २. आवेविता। आङ् + वेवी + ता। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक वेवीङ् वेतिना तुल्ये' (२। ५८) धातु से श्वस्तनीसंज्ञक 'ता' प्रत्यय, इडागम तथा ईकार का लोप। ३. आदीधीत। आङ् + दीधी + ईत। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'दीधीङ् दीप्तिदेवनयो:' (२। ५७) धातु से सप्तमीसंज्ञक प्र० पु० - एकवचन 'ईत' प्रत्यय तथा प्रकृत सूत्र से ईकार का लोप। ४. आवेवीत। आङ् + वेवीङ् + ईत। 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'वेवीङ् वेतिना
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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