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________________ तृतीये आख्याताध्याये षष्ठोऽनुषङ्गलोपादिपादः २९१ लुक्। सर्वत्र “अन उस् सिजभ्यस्तविदादिभ्योऽभुवः" (३। ४। ३१) इत्यन उसादेशेऽनेनाकारलोपः।। ७१७। [समीक्षा] _ 'अदुः, पपुः, तस्थुः, अरु:' आदि शब्दरूपों में आकारलोप का विधान दोनों ही व्याकरणों में किया गया है। पाणिनि का सूत्र है- "आतो लोप इटि च' (अ० ६।४। ६४)। कातन्त्रकार ने सन्ध्यक्षरसंज्ञक वर्गों के परे रहते “सन्ध्यक्षरे च' (३ । ६।३८) यह अग्रिम सूत्र बनाया है, परन्तु पाणिनि के उक्त सूत्र (६। ४। ६४) से ही कार्य सम्पन्न हो जाता है। शब्दलाघव और अर्थलाघव की दृष्टि से इन सूत्रों की रचना समीचीन ही कही जाएगी। [रूपसिद्धि] १. उद्गुः । उद् + अट् + इण् + अद्यतनी-अन्-उस्। 'उद्' उपसर्गपूर्वक 'इण् गतौ' (२। १३) धातु से अद्यतनीविभक्तिसंज्ञक प० प०-प्र० पु०-ब० व० 'अन्' प्रत्यय, “इणो गा" (३। ४। ८४) से 'इण्' को 'गा' आदेश, अडागम, अन् को उसादेश, सिच्, सिच् का लोप, प्रकृत सूत्र से आकार का लोप तथा सकार को विसर्गादेश। २. अदुः। अट् + दा + अद्यतनी-अन्-उस्। 'डु दा दाने' (२। ८४) धातु से अद्यतनीसंज्ञक 'अन्' प्रत्यय, अडागम, अन् को उस आदेश, आकारलोप, सिच, उसका लोप तथा सकार को विसर्गादेश। ३. अरुः। अट् + रा + ह्यस्तनी-अन्–उस्। ‘रा दाने' (२। २२) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक- प० प०-प्र० पु०-ब० व० 'अन्' प्रत्यय, अडागम, अन् को उस् आदेश, अन्लुक्, आकारलोप तथा सकार को विसर्गादेश।। ७१७। ४. अलुः। अट् + ला + ह्यस्तनी – अन् – उस्। 'ला दाने' (२।२२) धातु से ह्यस्तनीसंज्ञक प० प०-प्र० पु० - ब० व० 'अन्' प्रत्यय, अडागम, अन् को उस आदेश, अन्लुक्, आकारलोप तथा सकार को विसर्गादेश।। ७१७। ७१८. सन्ध्य क्षरे च [३।६।३८] [सूत्रार्थ] सन्ध्यक्षरसंज्ञक वर्ण के परे रहते धातु के आकार का लोप होता है।। ७१८ । [दु० वृ०] धातोराकारस्य लोपो भवति सन्ध्यक्षरे च परतः। व्यतिरे, व्यतिले।। ७१८ । [दु० टी०] सन्ध्य० । एदैतोरिति सिद्धे सन्ध्यक्षरग्रहणं सुखपाठार्थम्।। ७१८ ।
SR No.023090
Book TitleKatantra Vyakaranam Part 03 Khand 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJankiprasad Dwivedi
PublisherSampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages662
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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